Tuesday, May 28, 2019

देशों की सीमाओं को नकारती है यह लाइब्रेरी!


जब आप हास्केल फ्री लाइब्रेरी में प्रवेश करते हैं तो लगता है कि आप किसी आम कस्बाई अमरीकी लाइब्रेरी में घुसे हैं. बस एक फर्क़ पर आपका ध्यान जाता है  कि यहां जो लकड़ी का काम  है यानि फर्नीचर, अलमारियां वगैरह हैं वे सब अधिक भव्य और पुरानी शैली के हैं. फिर आपका ध्यान इस बात पर भी जाता है कि यहां का जो स्टाफ है वह कभी अंग्रेज़ी बोलता है तो कभी फ्रेंच, और हां, यह बात भी कुछ अजीब लगती है कि इस अमरीकी लगने वाली लाइब्रेरी में फ्रांस-कनाडा के इतिहास पर किताबों की बहुतायत है. और हां, सबसे अधिक ध्यानाकर्षक तो है इस लाइब्रेरी के फर्श पर चिपका हुआ एक काला टेप जो इसे दो भागों में बांटता प्रतीत होता है.

मुझे लगता है कि अब आपको यह बता ही दिया जाना  चाहिए कि जिस लाइब्रेरी की मैं चर्चा कर रहा हों वह दुनिया की एकमात्र ऐसी लाइब्रेरी है जो दो देशों में स्थित है. यह लाइब्रेरी अमरीका के डर्बी लाइन, वर्मोण्ट और  कनाडा के स्टैंस्टेड, क्यूबेक में स्थित है. लाइब्रेरी का मुख्य द्वार, सामुदायिक सूचना पट्ट और बच्चों की किताबों का खण्ड अगर अमरीका में है तो पुस्तकालय का शेष संग्रह और वाचनालय कनाडा में हैं. इसी भवन की दूसरी मंज़िल पर एक ऑपेरा हाउस भी है और ज़ाहिर है कि वह भी दोनों देशों में स्थित है. इस ऑपेरा हाउस की ज़्यादातर सीटें कनाडा में हैं जहां बैठकर आप वर्मोण्ट, अमरीका की धरती पर होने वाले कार्यक्रमों का लुत्फ़ लेते हैं. हैं ना मज़ेदार बात. इस दोमंज़िला भव्य इमारत का निर्माण एक रईस अमरीकी व्यापारी की कनाडाई पत्नी मार्था हास्केल ने सन 1901 में करवाया था. यह वह समय था जब ये दोनों कस्बे दूध और शक्कर की तरह घुले मिले थे. लोग समान जल स्रोत का पानी पीते थे, एक साथ खेलते थे और यहां तक कि बड़ी लड़ाइयों में भी एक साथ हिस्सा लेते थे. हास्केल परिवार ने इस भवन के निर्माण के लिए इस जगह का चुनाव बहुत सोच समझ कर किया था. वे सीमा के दोनों तरफ के लोगों के बीच आत्मीयता और दोस्ती का प्रसार चाहते थे. उस कालखण्ड में मार्था के मन में यह विचार था कि ऑपेरा हाउस की कमाई से लाइब्रेरी का संचालन हो जाया करेगा. लेकिन चलचित्र के आगमन से लोगों की रुचि में बहुत बदलाव आया और अब हालत यह है कि लाइब्रेरी की आय से ऑपेरा हाउस को ज़िंदा रखा जा रहा है.

अपनी स्थापना के बाद से बहुत लम्बे समय तक यह लाइब्रेरी अपनी पुस्तकों के संग्रह के अलावा भी लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी रही. असल में सीमाएं, चाहे वे किन्हीं भी देशों के बीच की हों, लोगों के मन में एक दुर्निवार आकर्षण जगाती हैं. यह सोचना कि एक विभाजक रेखा के पार सब कुछ अलहदा है, बहुत रोमांचक  होता है. यही रोमांच इस पुस्तकालय और ऑपेरा हाउस में आने वाले लोगों के आकर्षण का कारण रहा और अब भी है. लेकिन ग्यारह सितम्बर 2001 की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद से काफी कुछ बदल गया है. उस समय से पहले तो इधर से उधर जाना-आना बहुत ही सहज-स्वाभाविक हुआ करता था. लेकिन इस घटना के बाद इस भवन के परिसर में न सही, आस-पास के माहौल में एक अनकहा तनाव महसूस किया जा सकता है. पुस्तकालय भवन के बाहर भी चौबीसों घण्टे अमरीकी सुरक्षा सेवा का एक वाहन पहरेदारी करता है. रॉयल कैनेडियन माउण्टेड पुलिस के सीमा सुरक्षा सैनिक भी वहां हर पल मौज़ूद रहते हैं. अमरीकी नागरिकों के लिए अब भी इस पुस्तकालय में आना-जाना बहुत सहज है. वे मुख्य द्वार  से सीधे अंदर घुस सकते हैं, लेकिन कनाडाई नागरिकों को क्योंकि तकनीकी रूप से अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को पार करना होता है, थोड़ी-सी असुविधा का सामना करना पड़ता है. उन्हें कुछ सुरक्षा कैमरों के आगे से गुज़रते हुए लाइब्रेरी  में प्रवेश  करना होता है. हां इतना ज़रूर है कि एक बार लाइब्रेरी में जाने के बाद वे बहुत सुगमता से अपनी किताबें इश्यू करवा कर लौट आते  हैं. हां, इस बात का ज़रूर ध्यान रखा जाता है कि इस सुविधा का दुरुपयोग करते हुए कोई कनाडाई नागरिक अमरीकी इलाके में ही  न रह जाए. असल में यदा-कदा इस तरह के प्रयास होते भी रहते हैं.  

तमाम बदलावों के बावज़ूद यह भवन दो देशों के बीच की विभाजक रेखा की वजह से अलग हो गए परिवारों को मेल मुलाकात के अवसर सुलभ  कराता है. यह भवन अगर आज भी लोगों को अपनी तरफ खींचता है तो इसके पीछे जो भाव अंतर्निहित है उसे समझा जाना ज़रूरी है. भौगोलिक राजनीतिक तनावों और दुनिया भर में जगह-जगह खड़ी होती जा रही दीवारों के बीच यह भवन संदेश देता है कि सारी सीमाएं अंतत: मानव की कल्पना से उत्पन्न हैं और उन्हें मानना न मानना भी अंतत: हमारे अपने विवेक पर ही निर्भर है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 मई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, May 21, 2019

फ़ैशन की दुनिया को 'दुनिया' की फ़िक्र कहां?


फ़ैशन की दुनिया सदा से अपारम्परिक, बल्कि कहें परम्परा भंजक रही है. हममें से बहुत सारे लोग जब किसी चैनल पर फैशन परेड में मॉडल्स को अजीब-ओ-गरीब वेशभूषाओं में देखते हैं तो हमारी प्रतिक्रिया अस्वीकार और उपहास की ही होती है. हमें लगता है कि अगर हममें से कोई इस तरह की वेशभूषा धारण कर सड़क पर निकल जाए तो गली के कुत्ते उसकी दुर्गति किये बिना नहीं छोड़ने वाले. लेकिन इस बात से फैशन की  दुनिया के कर्ता धर्ताओं को कोई फर्क़ नहीं पड़ता है. वे अपना काम बदस्तूर ज़ारी रखते हैं. हां, इतना ज़रूर है कि हमें चौंकाने का कोई अवसर वे नहीं छोड़ना चाहते हैं. बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा’ – इस बात में सबसे ज़्यादा विश्वास शायद ये ही लोग करते हैं! अब देखिये ना, इधर हाल में अमरीका के एक फैशन ब्राण्ड ने इंस्टाग्राम पर एक मॉडल की एक तस्वीर पोस्ट की है जिसमें उसने गुलाबी रंग की बहुत बुरी तरह से फटी हुई जीन्स पहन रखी है. पोस्ट होते ही इस तस्वीर पर लाइक्स की और प्रतिक्रियाओं की झड़ी लग गई. ज़ाहिर है कि सारी प्रतिक्रियाएं प्रशंसात्मक नहीं थीं. मज़े की बात यह कि फैशन ब्राण्ड जितना प्रसन्न प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाओं से था, उससे कम खुश उन प्रतिक्रियाओं से नहीं था जिनमें इस जीन्स को खूब बुरा बताया गया था.

दरअसल, लगातार ऐसा कुछ करते रहना जिस से लोग उत्तेजित हों, भड़कें और नाराज़गी भरी प्रतिक्रियाएं करें, फैशन की दुनिया की एक सुपरिचित रणनीति है.  उन्हें इस बात से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है कि लोग उनके डिज़ाइन किये गए वस्त्रों को ना पहनने काबिल, भद्दे, बेतुके, बेहूदा या हास्यास्पद बता रहे हैं. वे न केवल इस बात से आनंदित होते हैं कोशिश करते हैं कि अगली दफा जो डिज़ाइन वे रैम्प पर उतारें वे पहले से भी ज़्यादा अजीब और लोगों को उकसाने वाले हों. शायद इसी सोच के चलते अमरीका की अलग अलग  फैशन कम्पनियों  ने पुरुषों के लिए पीवीसी निर्मित पारदर्शी  जीन्स, उन्हीं  के लिए ऐसे टॉप जिनमें उनके स्तनाग्र दर्शाने के लिए छेद बने हों, और महिलाओं के लिए अब तक काफी कुख्याति अर्जित कर चुकी डेनिम की पैण्टी जिसे जेण्टीज़  कहा जाता है, बाज़ार में उतारी हैं. जब इस तरह के विचित्र वस्त्र चर्चा में आते हैं तो स्वभावत: सोशल मीडिया पर भी उनकी खूब चर्चा होती है. और इस तरह फैशन उद्योग सोशल मीडिया को भी खाद-पानी सुलभ करा देता है.

लेकिन सोशल मीडिया पर होने वाली तमाम चर्चाएं, चाहे वो सकारात्मक हों, या नकारात्मक अंतत: फैशन उद्योग के लिए लाभदायक ही साबित  होती हैं. अब यही बात लें कि मात्र दो माह पहले जेण्टीज़ पर खूब छींटाकशी की जा रही थी, लेकिन दो महीने बाद ही वैश्विक फैशन खोज प्लेटफॉर्म पर उसकी खोज  में 2250 प्रतिशत उछाल देखा गया. फैशन उद्योग में माना जाता है कि अगर कोई उत्पाद वायरल हो जाए तो उसकी सर्च  में कम से कम  एक हज़ार प्रतिशत का उछाल तो अवश्यम्भावी है. जो लोग इस तरह के फैशन उत्पादों की आलोचना करते हैं, फायदा उनको भी कम नहीं होता है. इन मामलों में दिलचस्पी रखने वाले समुदाय में उनको पहचाना जाने लगता है और अगर वे व्यंग्यपूर्ण प्रतिक्रिया करते हैं तो  उनके अभिव्यक्ति कौशल को सराहा जाता है. उनके फैशन बोध को सम्मान भरी नज़रों से देखा जाता है और फैशन की दुनिया उनकी बातों को गम्भीरता से लेने लगती है.

बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. जिन उत्पादों की बहुत ज़्यादा आलोचना होती है, उनके लिए भी आहिस्ता-आहिस्ता एक विशेष खरीददार वर्ग तैयार होता जाता है. ये वे लोग होते हैं जो अपने पहनावे के मामले में अत्यधिक प्रयोगशील हैं. इनकी तो तमन्ना ही यह रहती है कि ये जो पहनें वह लोगों की कल्पना से भी परे का हो. ऐसे ही लोगों ने पारदर्शी जींस तक को सोल्ड आउट बना  दिया. ऐसे लोगों ने उसे पहना और फिर उनके पहनावे की खूब चर्चा हुई. पहनावे  की भी और पहनने वालों की भी. ज़ाहिर है कि ऐसा होने से फैशन डिज़ाइनर और निर्माताओं को अपनी मनचाही मुराद मिली. भले ही समाज में इस तरह के प्रयोगशील लोग बहुत ज़्यादा न  हों, यह बात भी सच है कि ये साहसी लोग ही बदलाव की राह का निर्माण करते हैं. अगर ऐसे साहसी लोग न हों तो सोचिये कि आज भी हम वही पहन रहे होते  तो हमारी पिछली पीढ़ियां पहनती थीं. हां, इतना ज़रूर है कि आज प्रयोगशीलता और  साहस का बहुत विस्तार हो गया है.

और हां,यह कहां ज़रूरी है कि हर नया बदलाव आपको पसंद आए ही! क्या पता जो आपको नापसंद हो, और लोग उसी को बहुत अधिक पसंद कर रहे  हों!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 21 मई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, May 14, 2019

एक अमरीकी की नज़र में भारतीय शिक्षा व्यवस्था

हाल में एक अमरीकी महिला लीसल श्वाबे एक शोध परियोजना के सिलसिले में भारत आईं और क्योंकि उन्हें यहां लम्बे समय तक रहना था, वे अपनी सात वर्षीया बेटी को भी साथ ले आईं. अमरीका में उनकी बेटी ब्रुकलिन के एक सरकारी स्कूल में पढ़ रही थी. यहां कोलकाता में उन्होंने उसे एक अंग्रेज़ी माध्यम के ग़ैर सरकारी स्कूल में प्रवेश  दिलवाया. अपने एक लेख में लीसल ने अमरीकी और भारतीय स्कूलों के अंतर को स्पष्ट करने के बाद जिस बात पर संतोष व्यक्त किया है, उस पर आम तौर पर हमारी नज़र नहीं जाती है. 

लीसल ने अपनी बात बेटी के लिए स्कूल द्वारा तै किये गए जूते खरीदने के अनुभव से शुरु की है. अब तक उनकी बेटी अपने स्कूल में भी फैशनेबल जूते पहन कर जाती थी लेकिन यहां उसे बड़ी नीरस किस्म के जूते खरीदने पड़े, क्योंकि स्कूल ने वे ही निर्धारित कर रखे थे. और यहीं उन्हें महसूस होने लगता  है कि अमरीका में उपभोक्तावाद लोगों को विकल्प देता है जबकि भारत में विकल्पों का अभाव है. विकल्पों के अभाव की यह बात मां-बेटी को बाद में भी बार-बार महसूस होती है. अमरीका में उसे स्कूल सोमवार को जो होमवर्क देता था उसे शुक्रवार तक कभी भी कर लेने की छूट थी. वहां वर्तनी पर अधिक ज़ोर नहीं दिया जाता था यानि शब्दों को मनचाहे तरीके से लिखे  जाने की छूट थी. साल में कुछ दफा थोड़ा  कुछ लिख कर बताना होता था लेकिन क्या और कैसे लिखना है यह विद्यार्थी को ही तै करना होता था. कला की कक्षा में शिक्षक प्रयोगशीलता को प्रोत्साहित करते थे और अभिभावक भी मौलिकता की सराहना करते थे. कक्षाओं में बच्चों को इधर उधर घूमने की और मनचाहे सवाल पूछने की पूरी स्वतन्त्रता  थी.  

लेकिन उसी बच्ची को जब कोलकाता में कक्षा दूसरी डी में भर्ती करवाया गया तो इन लोगों को काफी कुछ बदला हुआ लगा. बच्चों के पास बहुत ही कम विकल्प थे. कक्षाओं में उन्हें आपस में बात करने की छूट नहीं थी. उन्हें हर विषय के लिए अलग-अलग नोटबुक रखनी होती थी और नोटबुकों के लिए भी यूनीफॉर्म जैसी व्यवस्था थी. इन नोटबुकों में सारे बच्चे एक जैसे जवाब लिखा करते थे. सप्ताह में दो बार आर्ट क्लास भी होती थी, लेकिन सारे बच्चे लगभग एक जैसी चीज़ों का निर्माण करते थे. कुछ समय बाद इसी बच्ची ने भारत और अमरीका के स्कूलों के फर्क़ को इन शब्दों में बयान किया: “भारत में हमें अपने दोस्तों के साथ खेलने  के लिए कोई समय नहीं मिलता है जबकि अमरीका में अपने स्कूल में हम सिर्फ अपने दोस्तों के साथ खेलते ही थे.” 
इन बच्ची को यहां गणित समझने में बहुत दिक्कत महसूस हो रही थी. उसे लम्बे लम्बे हिंदी और फ्रेंच शब्दों की वर्तनी भी याद करना बहुत कठिन लग रहा था. कभी वह घर पर इस बात से घबराती कि कल स्कूल में ग़लत नोटबुक ले जाने पर उसे कितनी डांट  सहनी पड़ेगी और एक बार तो किसी शब्द की मुश्क़िल वर्तनी को याद न कर पाने से आतंकित होकर वह अपना सूटकेस पैक कर अमरीका लौटने के लिए ही उतारू हो गई थी. लेकिन सब कुछ ऐसा ही नहीं था. वो बच्ची आहिस्ता आहिस्ता अपने स्कूल को पसंद भी करने लगी थी. उसने खूब दोस्त बना लिये थे और स्कूल की छुट्टी के वक़्त दोस्तों के साथ उछलते कूदते हुए उसका बाहर आना या शनिवार की शाम स्कूल लाइब्रेरी से अपने दोस्तों के साथ प्रसन्न मुद्रा में बाहर निकलना उसकी मां को भी आश्वस्त करने लगा था. पढ़ाई का बोझ था और विकल्प भी बहुत कम थे, लेकिन इस सबके बीच भी उसकी मां बहुत सारी अच्छाइयां देख पा रही थी. 

उसकी मां को लगता है कि भारत के स्कूलों में विकल्पों का न होना भी एक अच्छी  बात है. यहां विकल्प भले ही न हों, ज़िम्मेदारियां हैं और यह सराहनीय है. उसकी मां इस बात को समझती हैं कि गणित जैसे विषय के भारी भरकम पाठ्यक्रम ने उनकी बेटी को वह सब सिखाया है जो वह अमरीका में कभी नहीं सीख पाती. यहां आकर ही उसने सही वर्तनी का महत्व समझा है. यहां आकर उसे ज़्यादा पढ़ना पड़ रहा है और उसकी एकाग्रता बढ़ी  है. अब तक वो खुद को जितना कुछ कर पाने में समर्थ समझती थी उससे कहीं ज़्यादा कर पा रही है. मां ने यह बात भी नोट की है कि भारत में स्कूल व्यवस्था  बच्चों में अपने कर्म के प्रति उत्तरदायित्व का भाव बढ़ाती है. लीसल यह तो मानती हैं कि भारत में बच्चों पर पढ़ाई का बहुत ज़्यादा बोझ व दबाव है और इसे आम तौर पर नुकसानदेह  समझा जाता है, लेकिन इसके बावज़ूद उन्हें यह उम्मीद है कि जब वे अपनी बेटी के साथ अमरीका लौटेंगी तो उसमें अपनी उम्र के अन्य अमरीकी बच्चों से अधिक आत्मविश्वास होगा. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 मई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, May 7, 2019

बुढ़ापे का उम्र से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है!

इधर दुनिया भर में बुढ़ापे को लेकर अनगिनत अध्ययन और शोध किये जा रहे हैं. भावी आर्थिक  नीतियों के निर्धारण के लिए यह बेहद ज़रूरी है. इन्हीं शोधों और अध्ययनों से अनेक दिलचस्प बातें छन छन कर सामने आ रही हैं. उनमें से कुछ की चर्चा करने बैठा हूं तो अनायास मुझे सन 2001 में बनी अमिताभ बच्चन की एक लोकप्रिय फिल्म का शीर्षक याद आ रहा  है – ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप!’  शीर्षक से ही यह स्पष्ट है कि बुड्ढा कहलाना किसी को पसन्द नहीं आता है. सच तो यह है कि लोग बुढापे में भी ‘अभी तो मैं जवान हूं’ ही गुनगुनाना पसन्द करते हैं. लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि उम्र के लिहाज़ से बुढ़ापा कब शुरु होता है? 

आपको यह बात तो मालूम  ही है  कि अतीत में ब्रिटेन में फ्रेण्डली सोसाइटीज़ एक्ट (1875) के आधार पर पचास की उम्र  से बुढ़ापे की शुरुआत मानी जाती थी. लेकिन अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो नई शोध की है उसके अनुसार पैंसठ पार की उम्र से बुढ़ापे की शुरुआत मानना प्रस्तावित है. इस शोध में हमारी आयु के विभिन्न पड़ावों को इस तरह से पहचाना गया है: शून्य से सत्रह बरस तक: अल्पायु या अण्डर एज, अठारह से पैंसठ बरस तक: युवावस्था, छियासठ से उनासी बरस तक: मध्य वय, अस्सी से निन्यानवे बरस तक: वरिष्ठ या बुज़ुर्ग, सौ बरस से अधिक वाले: दीर्घजीवी वरिष्ठ. सत्तर के दशक में जो नृवंशशास्त्रीय अध्ययन हुए उनमें मुख्यत: तीन आधारों पर यह वर्गीकरण किया गया था. आधार थे:  पहला- वर्ष की गणना, दूसरा– सामाजिक भूमिका में आया बदलाव (जैसे सेवा निवृत्ति, बच्चों का बड़ा हो जाना और रजोनिवृत्ति वगैरह), और तीसरा- क्षमताओं में आया बदलाव (जैसे शारीरिक अक्षमता, बुढापा, शारीरिक दक्षताओं में आया बदलाव). इनमें से भी दूसरे आधार को अधिक महत्वपूर्ण  माना गया.  

भारत में हम यह मान लेते हैं कि सरकारी सेवा निवृत्ति की उम्र से बुढ़ापा आ जाता है. सामान्यत: अभी यह उम्र साठ बरस है. कनाडा में सेवा निवृत्ति की आयु पैंसठ तो अमरीका में छियासठ बरस है और आशा की जा रही है कि दोनों ही देश शीघ्र ही इसे बढ़ाकर सड़सठ बरस कर देंगे. लेकिन सेवा निवृत्ति  की उम्र को बुढ़ापे के आगमन की बात मानना भी सबको स्वीकार्य नहीं है. वियना, ऑस्ट्रिया की एक शोध संस्था के विशेषज्ञों का मत है कि बुढ़ापे का फैसला वर्तमान आयु  के आधार पर नहीं बल्कि इस आधार पर किया जाना चाहिए कि किसी के पास ज़िन्दगी के और कितने बरस बचे हैं. उनका मानना है कि जब किसी के पास जीने के लिए पन्द्रह या इससे कम बरस बचे हों तो उसे बूढ़ा कहा-माना जाना चाहिए. अब इस  लिहाज़ से देखें तो पचास के दशक में एक सामान्य अंग्रेज़ के पन्द्रह बरस और जीने की उम्मीद की जाती थी, लेकिन आज पश्चिमी  देशों में यह माना जा रहा है कि एक औसत सेवा निवृत्त व्यक्ति कम से कम चौबीस बरस और पेंशन  का लाभ उठा लेगा. यानि मौज़ूदा हालात में चौहत्तर वर्षीय व्यक्ति को बूढ़ा माना जा सकता है. 

लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या केवल यह चौहत्तर का अंक ही बुढ़ापे के आगमन का निर्धारक हो सकता है ? चौहत्तर बरस की उम्र के हर व्यक्ति की स्थिति एक जैसी नहीं हो सकती है. ग़रीब और अमीर की, ग्रामीण और शहरी की, अनपढ़ और पढ़े लिखे की, अनुकूल और प्रतिकूल  जीवन स्थितियों वाले समान उम्र के व्यक्ति की दशा में बहुत बड़ा फर्क़ हो सकता है. स्त्री पुरुष के मामले में तो यह अंतर प्रमाण पुष्ट भी है. इसके अलावा अपवाद तो होते ही हैं. यह भी अनुमान लगाया गया है कि अभी हाल में रिटायर हुए बारह  में से एक पुरुष और सात में से एक स्त्री कम से कम सौ बरस तक जीवित रहेंगे. तो क्या उन्हें अधिक उम्र से  से बूढ़ा माना जाए? अगर आप अपने घर में भी कोई पुरानी तस्वीर देखें तो पाएंगे कि पिछली पीढ़ी के लोग साठ बरस की उम्र में ही खासे जर्जर दिखाई देते थे जबकि आज उसी उम्र के लोग उनकी तुलना में बहुत सेहमतमन्द और ऊर्जावान दिखाई देते हैं और उन्हें कोई भी बूढ़ा नहीं कहना चाहेगा. सही बात तो यह है कि आज के सत्तर बरस अतीत के पचास बरस के बराबर हो गए हैं. कहना अनावश्यक है कि बेहतर जीवन स्थितियों और अपनी सेहत के  प्रति बढ़ती जागरूकता के कारण यह बदलाव आया है.

तो, कुल मिलाकर मामला बहुत जटिल है और इस बात का कोई सर्वमान्य और सार्वकालिक उत्तर नहीं हो सकता कि किस उम्र के व्यक्ति को बूढ़ा माना जाए. वैसे, एक उत्तर हो सकता है जिससे शायद ही कोई असहमत हो, और वह यह कि बुढ़ापे का उम्र से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है. यह तो एक मानसिक अवस्था है जो हरेक की भिन्न भिन्न होती है. 

आप क्या सोचते हैं?  
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 07 मई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.