Tuesday, August 28, 2018

वे समय की ग़ुलामी से पूरी तरह आज़ाद हैं !


एक बार फिर बड़ी शिद्दत से इस बात का एहसास हुआ कि दुनिया के बारे में अपनी जानकारी कितनी कम है! मैं अब तक इस बात पर गर्व करता था कि हम भारतीय ही हैं जो घड़ी की सुइयों के ग़ुलाम नहीं हैं और समय पर पहुंच जाने जैसी ग़ंदी आदत से कोसों दूर हैं. लेकिन जब यह जाना कि दुनिया में कम से कम एक देश तो ऐसा है जो इस मामले में हमें चुनौती दे सकता है,  तो इस बात का अफ़सोस ज़रूर हुआ कि हाय! यह सम्मान  भी हमारे हाथों से फिसल गया. दक्षिण ब्राज़ील की टेक्नोलॉजिकल फ़ेडरल यूनिवर्सिटी  की एक शिक्षिका डॉ. ज़ैक्लीन बोन डोनाडा का कहना है कि किसी भी पार्टी में समय पर पहुंच जाना पूरे ब्राज़ील में बुरा माना जाता है. बकौल ज़ैक्लीन, ब्राज़ील की राजधानी रियो डे जेनेरियो में तो ख़ास तौर पर इसे सामाजिक परम्परा के विरुद्ध माना जाता है. वहां जल्दी या समय पर पहुंचना ठीक वैसी ही बात है जैसे आप किसी पार्टी में बग़ैर बुलाये पहुंच गए हों!

असल में ब्राज़ील में समय के साथ लोगों का रिश्ता बहुत दोस्ताना और सहज है. अगर आप वहां अपने इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे लोग आहिस्ता आहिस्ता चल रहे हैं, चलने का पूरा आनंद उठा रहे हैं और उन्हें कहीं भी पहुंच जाने की जल्दी नहीं है. सामाजिक आयोजनों के मामले में तो समय को लेकर उनकी उदारता विलक्षण है. वहां समय के बंटवारे को लेकर सवा (पन्द्रह मिनिट का टुकड़ा) की तो कोई परिकल्पना ही नहीं है. किसी के घर बताए गए समय के आधा घण्टा बाद पहुंचना बहुत सामान्य बात है और इसका ज़रा भी बुरा नहीं माना जाता है. वहां लोगों को सलाह भी यही दी जाती है कि आधे घण्टे की देरी या आधे घण्टे का इंतज़ार कई तरह से लाभप्रद है. इस दौरान आप ज़्यादा पानी पी सकते हैं, एक कप कॉफी का आनंद ले सकते हैं, रेस्टरूम जा सकते हैं, कोई किताब पढ़ सकते हैं, ध्यान लगा सकते हैं, या फिर यूं ही वक्त बिता सकते हैं. सलाह यही दी जाती है कि इतनी देरी को दिल पर न लिया जाए. इसी के साथ यह भी सलाह दी जाती है कि एक के बाद फौरन दूसरी मीटिंग न रखी जाए. यानि दो कार्यक्रमों के बीच पर्याप्त दूरी रखी जाए.

ब्रिटेन की मूल निवासिनी लेकिन अब ब्राज़ील में रह रहीं  फ़ियोना रॉय ने ब्राज़ील का अपना एक संस्मरण साझा करते हुए बताया कि एक बार उन्हें कुछ दोस्तों ने एक पार्टी में बुलाया. तब तक उन्हें ब्राज़ील में रहते हुए तीन माह बीत चुके थे. अपनी ब्रिटिश आदत के मुताबिक वे ठीक समय पर मेज़बान के घर जा पहुंची. उसने हड़बड़ाते हुए दरवाज़ा खोला तो फ़ियोना ने पाया कि वो बाथरोब में ही थी, यानि नहा रही थी. मेज़बान ने उसे कमरे में बिठाया, पहले खुद आराम से तैयार हुई और फिर पार्टी की तैयारी की. इस सबमें करीब दो घण्टे बीत गए. अपने इस अनुभव से फ़ियोना ने ब्राज़ील की ज़िंदगी का एक अनलिखा नियम कण्ठस्थ कर लिया. नियम यह कि आपका मेज़बान पार्टी के घोषित समय का इंतज़ार करेगा, और जब वो समय बीत जाएगा तो  नहाने जाएगा. बाद में तो फ़ियोना ने भी ब्राज़ील के इस तौर तरीके को अपना लिया और वे खुद अपनी दी हुई पार्टियों में भी देर से पहुंचने लगीं. तब उनके दोस्त कहने लगे कि यह तो विरूओ ब्रासीलिएरायानि पक्की ब्राज़ीलियन बन गई है!

ब्राज़ील लैटिन अमरीका का इकलौता ऐसा देश है जहां पुर्तगाली भाषा बोली जाती है, और यह जानना खासा दिलचस्प  होगा कि इस भाषा में देरी होने की तो अनेक अभिव्यक्तियां हैं लेकिन ठीक समय के लिए कोई अभिव्यक्ति नहीं है. ब्राज़ील में अगर कोई कहीं समय पर पहुंच  जाए तो उसे होरा इंगलिसियायानि अंग्रेज़ों की तरह वक़्त का पाबंद कहा जाता है. यह कुछ कुछ वैसा ही जैसे भारत में ठीक समय के लिए इंगलिश टाइम कहा जाता है. जो लोग ब्राज़ील की जीवन पद्धति से अनजान हैं उन्हें यह समझाया जाता है कि अगर कोई आपसे फ़ोन पर भी यह कहे कि मैं जल्दी ही पहुंच रहा हूं तो आप उसकी बातों में न आएं. हो सकता है उस वक़्त वो अपने घर में बैठा नहाने का इरादा कर रहा हो. ऊपर हमने जिन डॉ ज़ैक्लीन का ज़िक्र किया उन्होंने लिखा है कि उनका बॉस कई बार यह कहता था कि वो ट्रैफ़िक में फंस गया है और जल्दी ही पहुंच रहा है, लेकिन तब पीछे से आ रही आवाज़ें उसके घर में होने की चुगली कर रही होती थीं. और इसीलिए जाने-माने लेखक पीटर फ्लेमिंग ने 1933 में ही अपनी किताब में लिख दिया था कि अगर कोई जल्दबाज़ है तो ब्राज़ील में दुखी हो जाएगा. बकौल पीटर, “ब्राज़ील में देर होना एक वातावरण है. आप उसी में रहते हैं, उससे पीछा नहीं छुड़ा सकते.”

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 अगस्त, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, August 7, 2018

भूलना दिमाग़ की सफाई का ही एक रूप


हममें से ज़्यादातर लोग याददाश्त को अक्ल या बुद्धि का पर्याय मान बैठते  हैं और जिन्हें बहुत  सारी छोटी-मोटी बातें याद होती हैं उन्हें देख कर खुद के भुलक्कड़पन पर शर्मिंदा होते हैं. टेलीविज़न  पर आने वाले बहुत सारे स्मृति आधारित प्रतियोगी कार्यक्रमों में जब कोई प्रतिभागी फटाफट जवाब देता है तो हमें लगता है कि काश! हमारी याददाश्त भी ऐसी ही होती! माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि जिसे जितनी ज़्यादा चीज़ें याद है उसे उतना ही बेहतर माना जाता है. लेकिन इधर हाल में हुई कुछ वैज्ञानिक शोधों ने इस माहौल को चुनौती दे डाली है. टोरण्टो विश्वविद्यालय के दो शोधकर्ताओं पॉल फ्रैंकलैण्ड और ब्लैक रिचर्ड्स ने हाल में प्रकाशित अपने एक शोध पत्र में यह कहकर सबको चौंका दिया है कि हमारा दिमाग़ बातों को भुलाने के लिए भी सतत सक्रिय रहता है. उनका कहना है कि हमारी स्मृति व्यवस्था के लिए जितना महत्व चीज़ों को याद रखने का है उतना ही महत्व उन्हें भुला देने का भी है. इन शोधकर्ताओं के अनुसार,  हमारे दिमाग में एक छोटा-सा तंत्र होता है जिसे हिप्पोकैम्पस कहा जाता है. इसी में तमाम चीज़ें संग्रहित होती रहती हैं. लेकिन यह तंत्र अपने आप सफाई करते हुए ग़ैर ज़रूरी चीज़ों को मिटा कर नई चीज़ों के लिए जगह बनाता रहता है. रिचर्ड्स इस प्रक्रिया को इस कारण भी महत्वपूर्ण मानते हैं कि ग़ैर ज़रूरी चीज़ों की सफाई से हमें सही निर्णय करने में अधिक आसानी हो जाती है.

इन शोधकर्ताओं के अनुसार जैविक दृष्टिकोण से इस बात को यों समझा जा सकता है कि आदि मानव को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बहुत सारी चीज़ों को याद रखना होता था लेकिन जैसे-जैसे तकनीक का विकास होता गया, हमें उनमें से बहुत सारी बातों को याद रखने की कोई ज़रूरत ही नहीं रही. तकनीक ने उन चीज़ों को याद रखने का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया. हाल के जीवन से एक उदाहरण से भी यह बात पुष्ट होती है. आज से पंद्रह  बीस बरस पहले हमें  अपने नज़दीकी लोगों  के फोन नम्बर मुंह ज़बानी याद रहा  करते  थे लेकिन अब हमारा यह काम स्मार्ट फोन करने लगे हैं और हालत यह हो गई है कि हमें खुद अपने फोन नम्बर भी याद नहीं होते हैं. लेकिन आज हम ऐसी बहुत सारी बातें याद रखने लगे हैं जिन्हें याद रखने की अतीत में कोई ज़रूरत नहीं होती थी. इस तरह पुरानी स्मृतियों ने विलुप्त होकर नई बातों के लिए जगह बना दी है. आज हम बजाय साढ़े तीन, सत्रह और उन्नीस का पहाड़ा याद रखने के यह याद रखने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं कि कैलक्युलेटर को कैसे इस्तेमाल किया जाए! बहुत सारी ग़ैर ज़रूरी सूचनाओं को अपने दिमाग़ में ठूंसे रखने की बजाय हम यह याद रखना ज़्यादा उपयोगी समझते हैं कि कोई भी जानकारी पाने के लिए गूगल का इस्तेमाल कैसे किया जाए!

इन शोधकर्ताओं पॉल फ्रैंकलैण्ड और ब्लैक रिचर्ड्स ने अपने शोध पत्र में यह भी समझाया है कि हमारी स्मृति की सार्थकता इस बात में नहीं है कि वह तमाम ज़रूरी-ग़ैर ज़रूरी सूचनाओं का भण्डारण करती जाए. उसकी सार्थकता तो इस बात में है कि कैसे वह उपलब्ध ज़रूरी सूचनाओं का इस्तेमाल कर सही निर्णय करे. यानि महत्व इस बात का है कि  हमारा दिमाग़ अप्रासंगिक ब्यौरों को भुलाता चले और केवल उन बातों पर केंद्रित रहे जो वास्तविक जीवन में हमें सही फैसले लेने में मददगार साबित हों. आप किसी से मिलें और बात करें तो यह क़तई ज़रूरी नहीं है कि उस व्यक्ति के बारे में हर बारीक से बारीक बात आपको याद हो और उस बातचीत को आप शब्दश: दुहरा सकें. महत्व इस बात का है कि इस बातचीत के ज़रूरी बिंदु आपको याद रह जाएं. सुखद बात यह है कि हमारे लिए यह सारा काम हमारा  दिमाग़ अपने आप करता चलता है.

हमें यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि चीज़ों को याद रखना जितना महत्वपूर्ण है उससे कम उन्हें भुला देना नहीं है. अनावश्यक सूचनाओं की भीड़ को अपने दिमाग़ से हटाकर ही हम उसे बेहतर तरीके से काम करने के लिए तैयार कर  सकते हैं.  लेकिन हां, अगर कोई ज़रूरी बातों को भी भूल जाया करता है, तो हो सकता है कि वह किसी विकार अथवा रोग से ग्रस्त हो. और तब उसे ज़रूरी विशेषज्ञ सहायता लेने से नहीं चूकना चाहिए. लेकिन सामान्यत: इन तीन बातों को ज़रूर याद रखा जाना चाहिए. एक: अच्छी  स्मृति हमेशा उच्च बुद्धिमत्ता की पर्याय नहीं होती है. दो: हमारे दिमाग़ की संरचना ही ऐसी है कि वह कुछ चीज़ों को भुलाता और कुछ को याद रखता है, और तीन: भूलना भी बुद्धिमत्ता का एक ज़रूरी हिस्सा है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 07 अगस्त, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.