शायद इस बात से थोड़ा सुकून मिले कि युवाओं
द्वारा बेहद तेज़ गति से वाहन चलाकर दुर्घटनाएं
करने की समस्या से अकेले हम भारतवासी ही त्रस्त नहीं हैं. अगर अमरीका के एक
अन्वेषण केन्द्र की रपट पर भरोसा करें तो
वहां युवा लोगों की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण ट्रैफिक दुर्घटनाएं ही
हैं, और अकेले एक बरस (2014) में वहां इन दुर्घटनाओं ने 2600 किशोरों को मौत के
घाट उतार दिया. जहां इस बात पर संतोष किया जा सकता है कि सतत प्रयासों से 2005 से
2014 तक आते-आते इन प्राणघातक दुर्घटनाओं की संख्या में पचास प्रतिशत की कमी लाई
जा सकी है, वहीं इस बात पर चिंता होना भी
स्वाभाविक है कि 2014 से 2015 तक आते-आते इनमें दस प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है.
लेकिन जैसी अमरीका की रिवायत है वहां इंसान
की जान को वाकई कीमती समझा जाता है और उसे
बचाने के हर मुमकिन प्रयास किये जाते हैं. अमरीका में, बावज़ूद इस बात के कि हर
राज्य के अपने नियम-कानून हैं, सामान्यत: ड्राइविंग लाइसेंस मिलना बहुत आसान नहीं
माना जाता है. लेकिन अब इन नियमों को और कठोर बनाने के लिए सोचा जाने लगा है. इसी
के साथ वहां के विश्वविद्यालय और शोध संस्थान लगातार शोध करते हुए दुर्घटनाओं के
कारणों और उनसे बचाव के तौर-तरीकों पर गहन और प्रामाणिक शोध करते रहते हैं और इस
तरह की शोधों के परिणामों को नई नीतियों के निर्माण के वक़्त समुचित अहमियत भी दी
जाती है. अब इसी बात को लीजिए कि वहां की एक काउण्टी में 2004 में हुई एक सड़क
दुर्घटना में एक हाईस्कूल की फुटबॉल टीम के तीन खिलाड़ियों की मृत्यु के बाद से
शुरु हुआ शोध का सिलसिला अब तक ज़ारी है. तब नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने लेज़र
उपकरणों और वीडियो कैमरों से लैस शोधकर्ताओं
की कई टीमों को भेजकर यह पड़ताल शुरु की थी
कि किसी युवा के साथ अगर गाड़ी में कोई अन्य व्यक्ति भी हो तो उसकी ड्राइविंग पर
उसकी उपस्थित का क्या प्रभाव होता है. तब शोधकर्ताओं ने पाया कि अगर गाड़ी में युवा
लोग सवार हों तो दुर्घटना की आशंकाएं अधिक होती हैं.
और अब उसी शोध को आगे बढ़ाते हुए इसमें
ड्राइविंग सिम्यलेशंस और ब्रेन स्कैन्स को
भी शामिल कर लिया गया है. इस शोध में एक
प्रयोग यह किया गया कि सोलह से अठारह बरस के आयु समूह के ऐसे कुछ युवाओं से
जिन्हें हाल ही में डाइविंग लाइसेंस मिला था, कहा गया कि उनमें से हरेक के साथ एक
और युवा को बिठाकर ड्राइविंग सिम्यलेशन किया जाएगा. और यहीं एक छल किया गया. उनके
साथ जिस युवा को बिठाया गया वो खास तौर पर इस काम के लिए प्रशिक्षित था और एक
स्क्रिप्ट के तहत बर्ताव कर रहा था. ऐसे दो तरह के युवाओं को इन नए ड्राइवर युवाओं
के साथ बिठाया गया. एक वर्ग का युवा कुछ देर से पहुंचता है और आते ही कहता है कि
मुझे देर हो जाने की वजह यह है कि मैं धीमे ड्राइव करता हूं, और फिर रास्ते में हर
पीली बत्ती पर भी गति धीमी करता रहा. दूसरे वर्ग का युवा भी इसी तरह देर से आया, लेकिन आते ही बोला
कि देरी के लिए माफी चाहता हूं. आम तौर पर तो मैं काफी तेज़ ड्राइव करता हूं लेकिन
आज मुझे बहुत सारी लाल बत्तियों पर रुकना पड़ा. इसके बाद ये लोग अपने-अपने साथियों
के साथ सिम्युलेटर्स पर बैठते हैं. नया
आया युवा ड्राइव करता है और जो पहले वाला और वास्तविक युवा ड्राइवर है वह उसके साथी के रूप बैठ जाता है. बाद में आए
दोनों युवा अपनी-अपनी भूमिकाओं के अनुरूप यानि एक संयत तरह से और दूसरा आक्रामक
तरह से ड्राइव करते हैं. और इसके बाद असल युवा ड्राइवरों को ड्राइव करने को कहा जाता है.
जो परिणाम सामने आते हैं वे बहुत अहम हैं.
आक्रामक युवा के साथ जो युवक बैठा था, जब वो वाहन चलाता है तो खुद भी आक्रामक और
ग़ैर ज़िम्मेदार हो जाता है. इसके विपरीत, संयत युवा के साथ जो युवक बैठा था जब उसे
खुद गाड़ी चलानी होती है तो उसका बर्ताव संयत ही रहता है. इससे यह निष्कर्ष निकाला
गया कि ड्राइव करने वाले के साथ जो व्यक्ति बैठता
है उसका असर ड्राइव करने वाले पर ज़रूर पड़ता है. और इससे संग़ति को लेकर
हमारे यहां प्रचलित बहुत सारे कथनों को भी बल मिलता है. अमरीका में इस तरह के अनेक
प्रयोग किये गए हैं और उन सभी के नतीजे करीब-करीब एक जैसे हैं. इन नतीज़ों के आधार
पर अब वहां ड्राइविंग को और अधिक सुरक्षित और ज़िम्मेदारीपूर्ण बनाने के लिए विभिन्न
कार्ययोजनाएं तैयार की जा रही हैं.
आशा की जानी चाहिए कि हमारे यहां भी
वक्तव्यों और घोषणाओं के पार जाकर कुछ ठोस और सकारात्मक किया जाएगा.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 05 जुलाई, 2016 को इसी शीर्षक से प्र्काशित आलेख का मूल पाठ.