Tuesday, August 4, 2020

प्राचार्य कैसे-कैसे-2

मैंने जुलाई 1967 में राजस्थान कॉलेज शिक्षा सेवा में प्रवेश किया और नवम्बर 2003 में इस सेवा से निवृत्त हुआ. लगभग 36 वर्षों के इस कार्यकाल में अंतिम 32 माह को छोड़कर, जब मैं निदेशालय कॉलेज शिक्षा में संयुक्त निदेशक पद पर कार्यरत रहा, सारा समय विभिन्न महाविद्यालयों में कार्यरत रहा. इस दौरान मुझे लगभग बीस प्राचार्यों के साथ काम करने का अवसर मिला और उनमें से हरेक से मैंने कुछ न कुछ सीखा. आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो उन बीस में से एक स्वर्गीय महेश कुमार भार्गव मुझे कुछ ज़्यादा ही याद आते हैं. वे 1978 से 1981 तक राजकीय महाविद्यालय, सिरोही में मेरे प्राचार्य रहे. उनके व्यक्तित्व और कार्य शैली का मुझ पर इतना भारी प्रभाव रहा कि जब मार्च 2000 में मैं राजकीय महाविद्यालय सिरोही का प्राचार्य बना तो एक क्षण को मैं उस कुर्सी पर बैठते हुए झिझका जिस पर कभी एम. के. भार्गव जैसे प्राचार्य बैठ चुके थे, और फिर दूसरे ही क्षण मुझे यह गर्व भरी प्रतीति हुई कि मैं इतनी महान परम्परा की एक कड़ी बनने जा रहा हूं. भार्गव साहब से जुड़ा एक संस्मरण कुछ दिन पहले मैं साझा कर चुका हूं (देखें: प्राचार्य कैसे-कैसे).  आज उसी क्रम को आगे बढ़ा रहा हूं:

एक छोटी-सी, बल्कि कहें उनकी बहुत बड़ी बात आज मेरे जेह्न पर दस्तक दे रही है. यह बात उस व्यक्ति की मानसिक निर्मिति को दर्शाती है. प्राचार्य भार्गव साहब की बेटी मंजरी भार्गव भी हमारे ही कॉलेज में इतिहास की प्राध्यापिका थीं. शायद कुछ लोगों को याद हो कि ये मंजरी भार्गव तैराकी की अर्जुन पुरस्कार विजेता भी थीं. लेकिन विमला और मेरे लिए वे न प्रोफ़ेसर थीं, न अर्जुन पुरस्कार विजेता. हमारे लिए वे केवल मंजु जी थीं. हुआ यह कि एक दिन हम कुछ परिवारजन भार्गव साहब के बंगले पर बैठे गपशप कर रहे थे (बाद में वही बंगला कुछ समय के लिए हमारा भी आशियाना बना!). मंजरी ने कोई लेख लिखा था और उस पर वे मेरी सलाह चाह रही थीं. उन्होंने बड़े सहज भाव से कहा “अग्रवाल साहब, आप इस काम के लिए कब आ सकेंगे?” यह कोई ख़ास बात नहीं थी. भार्गव साहब कॉलेज में प्राचार्य थे लेकिन उनसे हमारी बहुत गहरी पारिवारिकता थी. इतनी ज़्यादा कि जब भी उनके यहां कढ़ी बनती, वे कॉलेज में ही चपरासी को भेजकर मुझे अपने चेम्बर में बुलाते और हौले-से कहते, “डीपी, आज घर पर कढ़ी बनी है. लंच में मेरे साथ चलना!” मेरा कढ़ी प्रेम विश्वविख्यात था और है. लेकिन जैसे ही मंजरी ने मुझसे अपने घर आने को कहा, भार्गव साहब ने फौरन उन्हें टोका. बोले, “मंजु, अग्रवाल साहब तुम्हारे घर क्यों आएंगे? ये तुमसे सीनियर हैं. तुम्हें पूछना चाहिए कि सर, मैं आपके यहां कब आ सकती हूं?” क्या आज कोई कल्पना भी कर सकता है कि एक प्राचार्य पिता अपनी प्राध्यापक बेटी को इस तरह टोक सकता है? लेकिन भार्गव साहब वाकई अदभुत थे. अद्भुत और अनुकरणीय. उनसे बहुत सीखा है मैंने.

और यह लिखते हुए मुझे उनका एक और प्रसंग याद आ रहा है, जिसे बताए बिना रहा नहीं जा रहा है. वह सर्दी की रात थी. शायद दिसम्बर का महीना रहा होगा. हम खाना खाकर रजाई में घुस चुके थे. कोई आठेक बजे घर की घण्टी बजी. रजाई में से निकल कर, ताला खोलकर बाहर आया तो देखा प्राचार्य भार्गव साहब खड़े हैं. वैसे हम लोगों का एक दूसरे के यहां खूब आना-जाना था, और जैसा मैंने पहले भी कहा है, भार्गव साहब हम लोगों से कुछ ज़्यादा ही स्नेह रखते थे, लेकिन उस समय उनका आना मुझे भी चौंका गया. मैं उनसे कुछ कहता-सुनता और उन्हें घर के भीतर आने को कहता, उससे पहले विमला, मेरी पत्नी भी बाहर आ गईं. भार्गव साहब बोले, “उमा (उनकी पत्नी) कार में हैं. वे यहां मिसेज़ अग्रवाल के पास रुकेंगी, और डीपी, तुम मेरे साथ चलो!” कोई भूमिका नहीं, कोई जानकारी नहीं. बस, साथ चलने का आदेश. मैंने बाहर जाने योग्य कपड़े पहन कर आने की इजाज़त ली और तब तक वे तथा श्रीमती भार्गव हमारे दरवाज़े पर ही खड़े रहे. मैं कपड़े बदल कर आया तो श्रीमती भार्गव कार से निकल कर मेरे घर में आ गईं और मैं कार में जा बैठा. तब तक भार्गव साहब ने नहीं बताया कि वे मुझे कहां ले जा रहे हैं. थोड़ी देर में कार जाकर रुकी हमारे कॉलेज के सामने. मेरे घर से कॉलेज बमुश्क़िल एक किलोमीटर दूर होगा. तो मुश्क़िल से तीन-चार मिनिट लगे होंगे. उन दिनों किसी मुद्दे पर छात्र हड़ताल पर थे और वे रात को भी कॉलेज के बाहर धरना दिये हुए थे. भार्गव साहब ने कार रोकी, मुझे बाहर निकलने का इशारा किया और हम दोनों सीधे कॉलेज के गेट पर जा पहुंचे जहां दस पंद्रह विद्यार्थी ठण्ड में सिकुड़ते हुए धरने पर जमे हुए थे. भार्गव साहब ने उनसे कहा कि तुम बेशक अपना धरना ज़ारी रखो, लेकिन मुझे यह फिक्र है कि कहीं ठण्ड के मारे बीमार न पड़ जाओ. मै यह देखने आया हूं कि तुम्हारे पास ओढ़ने बिछाने का पर्याप्त इंतज़ाम है या नहीं. अगर न हो तो मैं टेण्ट हाउस से अभी भिजवा देता हूं. और इतना कह कर वे वापस अपनी कार की तरफ मुड़े. पीछे-पीछे मैं. अब उनकी कार जाकर रुकी एक टेण्ट हाउस के सामने. उन्होंने आदेश दिया कि पंद्रह बीस गद्दे और रजाइयां तुरंत कॉलेज के बाहर पहुंचा दिये जाएं! यह सब देखकर मैं तो अवाक था. विद्यार्थी पूरे दिन प्राचार्य मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं और प्राचार्य है कि कड़कड़ाती ठण्ड में उनकी सेहत की फिक्र कर रहा है. रास्ते में वे मुझसे बोले, “डीपी, हैं तो ये अपने ही बच्चे! हम इनको बीमार पड़ता कैसे देख सकते हैं?” कहना अनावश्यक है कि अगली सुबह जब मैं कॉलेज पहुंचा तो पाया कि विद्यार्थी अपना धरना ख़त्म कर चुके थे. ऐसे बड़े मन वाले प्राचार्य को मैं कैसे भूल सकता हूं!

Sunday, August 2, 2020

मृत्यु भी एक उद्यम है!


लीजिए साहब, कैलिफोर्निया की एक स्टार्ट अप कम्पनी ने लोगों के  समग्र जीवनानंत  अनुभव को नया आकार  देने का बीड़ा उठाया है. बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स नामक इस कम्पनी ने दावा किया है कि वह जीवन के अंत के सम्पूर्ण अनुभव को पूरी तरह बदल देगी. अभी तक तो होता यह रहा है कि जैसे ही कोई व्यक्ति आखिरी सांस  लेता है उसके परिजन पारम्परिक विधि से उसके अंतिम संस्कार की तैयारियों में जुट जाते हैं. विभिन्न समाजों में  इन अंतिम संस्कारों के रूप अलग-अलग हैं. मसलन कहीं देह को सुपुर्दे  ख़ाक किया जाता है तो कहीं उसे अग्नि को समर्पित किया जाता है. पश्चिम में जहां ईसाई धर्म के मानने वाले अधिक हैं, सामान्यत: शव को ताबूत में रखकर पृथ्वी को समर्पित कर दिया जाता है.

अमरीका जैसे हर चीज़ में व्यावसायिक सम्भावनाएं तलाश कर लेने वाले समाज में मृत्यु को भी एक बड़े उद्यम और व्यवसाय के रूप में स्थापित कर लिया गया है. और जब जीवन में सब कुछ पर महंगाई की मार पड़ रही है तो भला मौत पर उसका असर कैसे न हो! एक मोटे अनुमान के अनुसार हाल के बरसों में अमरीका में अंतिम संस्कार की लागत में दुगुनी वृद्धि हो चुकी है. ऐसा बताया जाता है कि अब अमरीका में एक शव के  अंतिम संस्कार की लागत सामान्यत: पंद्रह से बीस हज़ार डॉलर के आसपास होने लगी है. और जैसे इतना ही काफ़ी न हो, बढ़ते शहरीकरण के कारण कब्रस्तानों के लिए ज़मीन का टोटा भी होता जा रहा है. इन बातों का एक असर यह भी हुआ है कि अब बहुत सारे अमरीकी भी पारम्परिक अंतिम  संस्कार की बजाय दाह संस्कार का वरण करने लगे हैं. इस बदलाव के बावज़ूद अमरीका में अंतिम संस्कार का बाज़ार काफ़ी बड़ा है. लगभग 20 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष. इसी बड़े बाज़ार और घटती ज़मीन ने बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स जैसे स्टार्ट अप को इस नवाचार के लिए प्रेरित किया है.

बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स वाले अलग-अलग जगहों पर खूब सारी ज़मीन खरीद रहे हैं  और उस ज़मीन के छोटे-छोटे  हिस्से लोगों को इस आश्वासन के साथ बेच रहे हैं  कि उसे यथावत रखा जाएगा, उसका कोई विकास नहीं किया जाएगा. विकास से यहां आशय आधुनिक निर्माण आदि से है. हां, इस ज़मीन पर तरह तरह के पेड़ लगाए गए हैं और ऐसे हज़ारों पेड़ भावी मृतकों को बेचे जा चुके हैं. मौत के बाद के जीवन के लिए चिंतित लोग वहां जाते हैं, अपनी पसंद का पेड़ चुनते  हैं और उनके नाम की एक पट्टिका वहां लगा दी जाती है. बहुत सारे लोग पेड़ विहीन ज़मीन भी चुनते हैं. ऐसे लोगों में से जब किसी का निधन होता है तो उसकी राख व अस्थियां खाद आदि के साथ मिश्रित कर उस ज़मीन में या उस पेड़ की जड़ों में डाल दी जाती है. कम्पनी का वादा है कि अगर कभी ऐसा कोई पेड़ मर गया तो उसकी जगह उसी प्रजाति का नया पेड़ लगा दिया जाएगा. कम्पनी का करोबार ठीक चल रहा है. अभी उसमें पैंतालीस लोग काम कर रहे हैं और अगर कम्पनी के दावों पर विश्वास करें तो हज़ारों लोगों ने वहां अपने अंतिम संस्कार के लिए पेड़ खरीद लिये हैं.

इस तरह अपने अंतिम संस्कार के लिए ज़मीन और पेड़ आरक्षित करने का न्यूनतम खर्च तीन हज़ार डॉलर है. इस राशि में किसी सामान्य प्रजाति का नया लगाया पौधा मिलता है, जबकि जो लोग तीस हज़ार डॉलर तक खर्च करने की हैसियत रखते हैं उन्हें दुर्लभ और महंगी  प्रजाति का  विकसित पेड़ मिल जाता है. और हां, जो लोग और भी कम खर्च करना चाहते हैं वे मात्र नौ सौ सत्तर डॉलर खर्च कर किसी सामुदायिक वृक्ष की जड़ों में अपना डेरा डालने का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं. कुछ लोग अपने लिए कोई अकेला खड़ा पेड़ चुनते हैं तो कोई मौत के बाद भी समूह में रहने की ललक के साथ समूह में लगाए गए पेड़ों में से एक का चुनाव कर लेते हैं. एक और बात. क्योंकि ज़माना तकनीक का है तो मौत के बाद भी तकनीक का दामन थामे रहा जा सकता है. जो लोग अपनी जेब थोड़ी और ढीली कर सकते हैं वे अपना एक डिजिटल मेमोरियल वीडियो भी बनवा सकते हैं ताकि जब कोई उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने आए तो वो बारह मिनिट का यह वीडियो देख उनकी यादों में डूब सके.

स्टार्ट अप की इस योजना की कामयाबी पर बहुतों को संशय भी है. उन्हें लगता है कि जब रात को चुपचाप जाकर किसी खाली पड़ी ज़मीन पर अपने प्रियजन के अंतिम अवशेष को निशुल्क विसर्जित किया जा सकता है तो भला इतनी बड़ी राशि कोई क्यों खर्च करेगा? यह देखना दिलचस्प  होगा कि मृत्यु के इस कारोबार की परिणति क्या होती है!

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यादें आबू रोड की

कल जब मैंने अपने आबू रोड के कार्यकाल का एक संस्मरण लिखा तो प्रसंगवश उसमें यह भी ज़िक्र आ गया था कि वहां की स्मृतियों में और काफी कुछ है जिन्हें लिखने में मुझे संकोच है. मेरे कुछ मित्रों ने पुरज़ोर आग्रह किया कि जो अनुभव हैं उन्हें लिख ही दूं. उनके आदेश को टाल नहीं पा रहा हूं. पढ़ें यह अंश:

पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि जुलाई 1998 से मार्च 2000 तक का करीब बीस माह का आबू रोड का कार्यकाल मेरे सेवा काल का सबसे कठिन कार्यकाल रहा. वैसे उचित यह होगा कि इन बीस माह में से करीब छह माह अलग कर दूं. इन छह माह की चर्चा कल कर ही चुका हूं. इसलिए सच तो यह है कि सिर्फ़ चौदह माह ही मुश्क़िल से बीते. और इसकी वजह सिर्फ यह कि आबू रोड कॉलेज सही मानों में एक बिगड़ा हुआ कॉलेज था. कॉलेज को बिगाड़ने में वहां की छात्र राजनीति की और वहां की सामाजिक संरचना की बहुत बड़ी भूमिका है. वहां के एक राजनेता, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष विनोद परसरामपुरिया (अब स्व.) का एक दिन फोन आया. न कोई दुआ न कोई सलाम. सीधे बोले, “प्रिंसिपल साहब, आपको यहां रहना है या नहीं रहना है?” मैंने पूछा कि क्या बात है, तो बोले, “आपको इतना समय हो गया यहां आए, आप एक बार भी मुझसे मिलने नहीं आए!” मैंने अपने को काबू में रखते हुए जवाब दिया कि “न तो आपने कभी मुझे बुलाया और न मुझे कोई काम पड़ा. आता कैसे?” बोले, “आप जानते हैं, मैं आपका तबादला करा सकता हूं.” मैंने यह कहते हुए कि “अब तक तो नहीं मालूम था, अब आपने बता दिया है”, फोन रख दिया. उसके बाद उनसे कभी कोई संवाद नहीं हुआ.

आबू रोड सिरोही ज़िले में ही स्थित है लेकिन वहां की संस्कृति सिरोही से एकदम अलहदा है. आबू रोड की युवा पीढ़ी के लिए एक शब्द बहु प्रयुक्त है: चवन्ना. अर्थ बहुत स्पष्ट है. वैसे मुझे कभी भी यह बात नहीं रुचती है कि किसी पूरे के पूरे समूह को एक ही डण्डे से हांका जाए या उस पूरे समूह पर एक लेबल लगा दिया जाए. लेकिन लगभग दो बरस आबू रोड में रहकर मुझे लगा कि जिसने भी यह नामकरण किया होगा, अवश्य ही वह भुक्त भोगी रहा होगा. विद्यार्थी राजनीतिक दलों की युवा शाखाओं एन.एस.यू.आई. और ए.बी.वी.पी. में बुरी तरह विभक्त और हर वक़्त लड़ने-मरने और प्रशासन की नाक में दम करने को तैयार. व्यवहार में विनम्रता और शालीनता का दूर-दूर तक कोई ठिकाना नहीं. जाति की बात करना मेरे स्वभाव में नहीं, लेकिन वहां जाकर महसूस किया कि अगर किसी जाति के युवाओं को अशिष्टता के लिए पहला पुरस्कार देना हो तो वह जाति अग्रवाल होगी. हालत यह हो गई कि अगर कोई छात्र मेरे पास आता और अशिष्टता से पेश आता तो मैं उससे पहली बात यही पूछता कि “कहीं तुम अग्रवाल तो नहीं हो?” और उनका आभार कि उन्होंने मुझे एक बार भी ग़लत साबित नहीं किया. सबसे ज़्यादा मज़ा तो तब आया जब मैं, अपने आबू रोड पदस्थापन के करीब-करीब आखिरी दिनों में वहां की एक प्रख्यात मिठाई की दुकान पर खरीददारी के लिए गया. दुकानदार भी मुझे पहचानता था. उस दिन जाने क्या बात हुई, उसने बहुत झुककर, ज़रूरत से ज़्यादा ही झुककर मुझे नमन किया. मैंने जब इसकी वजह पूछी तो वह बोला कि “सर! मैं आपको नमन इसलिए कर रहा हूं कि हम तो अपने एक-दो बच्चों को भी नहीं झेल पाते हैं, आप पूरे कॉलेज को झेल रहे हैं!” हो सकता हो, उस दिन उसके सपूतों ने कुछ अधिक ही आबूरोडपना दिखा दिया हो.

लेकिन फिर भी वहां बीस माह गुज़ारने में मुझे अधिक पीड़ा नहीं हुई. इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि वहां के स्टाफ से मुझे बहुत सहयोग मिला. विशेष रूप से टीचिंग स्टाफ़ से. डॉ एसबी लाहिड़ी, अनिता गुप्ता, अंशु रानी सक्सेना, गोपाल कृष्ण सुखवाल, भगवान दास,सत्य भान यादव, हनुवंत सिंह चौहान, संस्कृत की एक मै’म, जिनका नाम याद नहीं आ रहा, आदि मेरे बहुत अच्छे सहयोगी रहे. मेरे उपाचार्य प्रो. सवाई राम ने हमेशा मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया. अलबत्ता दफ़्तर का हाल इतना अच्छा नहीं था. ज़्यादातर लोग न तो ख़ुद काम करना चाहते थे और न उन्हें यह बात सहन होती थी कि कोई दूसरा काम करे. मेरे शिक्षक सहकर्मियों ने मुझे जब उन्मुक्त सहयोग दिया तो कार्यालय के साथियों ने उन्हें यह कहते हुए कि यह जो काम आप कर रहे हैं, यह आपका है ही नहीं, भड़काने का हर सम्भव प्रयास किया. उन दिनों कम्प्यूटर नया नया आया था, और मेरे कुछ शिक्षक साथी कम्प्यूटर सीखने में खूब रुचि लेते थे. दफ़्तर वाले उन्हें बार-बार टोकते, मेरे पास भी शिकायत लेकर आते कि ये कम्प्यूटर को खराब कर देंगे, या ये तो उस पर गेम खेलते रहते हैं. ज़ाहिर है कि मैं इन बातों को तवज्जोह नहीं देता, और यह उन्हें और बुरा लगता. लेकिन वक़्त जैसे-तैसे कट ही गया. मैं हर माह अपने दोस्तों के साथ संध्याकालीन ‘बैठकी’ के लिए सिरोही आता, और उस बैठकी में जैसे महीने भर का तनाव बह जाता.

कॉलेज का एक प्रसंग साझा करने काबिल हैं. सिरोही में मैंने देखा-सीखा था सारा स्टाफ एक परिवार की तरह रहता है. यही प्रयास मैंने यहां भी किया. सत्र के अंतिम कार्य दिवस पर कॉलेज परिसर में स्टाफ की सपरिवार एक मिलन सांझ रखी. थोड़ा बहुत गाना बजाना और फिर प्रीतिभोज. यह कोई असामान्य बात नहीं थी. सारे कॉलेजों में सत्र के अंतिम कार्य दिवस पर ऐसा होता है. उस आयोजन में मेरी बेटी ने भी कोई कविता सुनाई. अगले दिन किसी स्थानीय पत्रकार का फोन आया कि “प्रिंसिपल साहब आपके होते कॉलेज में यह क्या हो रहा है? न जाने क्या-क्या खाया पीया जा रहा है और अश्लील नाच गाने हो रहे हैं!” मैंने जब उस पत्रकार से विस्तार में बात की तो पता चला कि कॉलेज के ही एक विद्यार्थी ने पास की किसी छत से कविता सुनाती हुई मेरी बेटी की फोटो लेकर न जाने क्या-क्या बताते हुए उस पत्रकार को उकसा दिया था. जब मैंने उसे कहा कि यह फोटो तो मेरी ही बेटी की है, तो उससे कुछ बोला नहीं गया. उसी ने मुझे अपनी जानकारी का स्रोत भी बताया. उस विद्यार्थी ने यह सारी बात कॉलेज शिक्षा निदेशालय को भी लिख भेजी थी. बाद में वहां से मुझसे इस पर टिप्पणी चाही गई जो मैंने भेज दी और मामला ख़त्म हो गया. लेकिन इस तरह की हरकतें वहां आम थी. यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि इन हरकतों को कॉलेज स्टाफ, विशेष रूप से कार्यालय स्टाफ का भी सहयोग मिलता था. लेकिन वक़्त बीत ही गया. शहर से भी मेरे ठीक-ठाक रिश्ते रहे. इनके मूल में एक बात यह भी थी कि सिरोही में इतना लम्बा समय बिताने की वजह से आबू रोड भी मुझे जानता-पहचानता था. अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि वहां भी मैंने खूब अनुभव अर्जित किये और बड़े मज़बूत रिश्ते भी बनाए, जो अब तक बने हुए हैं.

दो दशक पहले का 'कोरोना' काल!

आज शाम अपने भतीजे अरविंद  से बात कर रहा था. अरविंद उदयपुर में रहता है और उसका अच्छा ख़ासा और खूब फैला हुआ व्यवसाय है. बहुत व्यस्त रहता है. हमें गर्व होता है, बच्चों को इस तरह प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए देख कर. बहुत स्वाभाविक है कि बात इधर-उधर से होती हुए कोरोना पर आ टिकी. इसी क्रम में उसने एक मार्के की बात कही. बोला कि “चाचाजी, कोरोना के शुरुआती समय में करीब दो महीने कहीं जाना-आना नहीं हुआ, और यह समय मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत समयों में से है”. इस बात को समझ सकना मेरे लिए कठिन नहीं था. भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में से अगर कुछ समय परिवार के साथ बिताने का मौका मिला तो उसे खूबसूरत और यादगार होना ही था. लेकिन जब अरविंद यह बात कर रहा था, तो उसकी बात सुनने के साथ ही मेरे मन में अपनी स्मृतियां भी तैर रही थीं. यह भी एक संयोग ही है कि अभी जिस स्मृति की बात कर रहा हूं उसका सीधा सम्बंध उससे भी है. आगे वाले वृत्तांत में मैंने अपने जिन भाई साहब के निधन पर उदयपुर जाने की चर्चा की है वे इस अरविंद के पिताजी ही थे.

असल में मैं इन दिनों अपने जो संस्मरण लिख रहा हूं उसमें अपनी नौकरी के बहुत सारे प्रसंग भी अंकित किये हैं. मैं प्राचार्य पद पर पदोन्नत होकर जुलाई 1998 में सिरोही ज़िले में स्थित आबू रोड पहुंचा था और करीब बीस माह वहां इस पद पर रहा. इसके बाद मेरी पदोन्नति स्नातकोत्तर प्राचार्य पद पर हो गई और मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरोही में आ गया था. आबू रोड में अपने कार्यकाल के बारे में लिखने के लिए मेरे पास अधिक प्रीतिकर स्मृतियां नहीं हैं, हालांकि जो हैं उन्हें लिखा है. वहां के एक साथी भगवान दास  जी ने यह लिखा भी कि उन्हें मेरे इस कार्यकाल के संस्मरणों की प्रतीक्षा है, मैं उन्हें सार्वजनिक करने से बचता रहा हूं. लेकिन आज जब अरविंद से बात हुई तो लगा कि उस काल का एक संस्मरण तो साझा कर ही दूं. यह आबू रोड का मेरा दूसरा संस्मरण है. पता नहीं पहला संस्मरण कभी यहां सोशल मीडिया पर साझा करूंगा भी या नहीं! फिलहाल तो यह पढ़ें:

दूसरा प्रसंग बहुत मज़ेदार है. इसी कॉलेज के एक वरिष्ठ प्राध्यापक पूनमा राम खोड किसी अन्य कॉलेज में प्राचार्य पद पर कार्यरत थे और वे आबू रोड में आने के लिए प्रयत्नरत थे. यह स्वाभाविक भी है. मैं अपने भाई साहब के निधन के कारण उदयपुर गया हुआ था कि पीछे से इन खोड़ साहब का तबादला आबू रोड हो गया और मुझे भीनमाल स्थानांतरित कर दिया गया. अब क्योंकि खोड़ साहब आबू रोड आने को बहुत व्याकुल थे, वे शीघ्रातिशीघ्र आबू रोड आए और मेरी अनुपस्थिति में वहां के प्राचार्य का पद भार ग्रहण कर लिया. जब तीन चार दिन बाद मैं उदयपुर से लौटा तब तक किसी प्रशासनिक कारण से यह आदेश जारी हो गया कि अगले आदेश तक यथास्थिति बनाई रखी जाए. इसका अर्थ यह हुआ कि खोड़ साहब प्राचार्य हो गए, मैं अधर में लटक गया. यथास्थिति के चलते मैं भीनमाल जाकर भी जॉइन नहीं कर सकता था. अब, खोड़ साहब के मन में यह धुकधुकी कि जब मैं उदयपुर से लौटकर आऊंगा तब जाने क्या दंगा करूंगा? ख़ैर. मैं आया और दस बजे कॉलेज गया. खोड़ साहब कुर्सी पर बैठे हुए. मैंने उन्हें बधाई दी. वे तो धूम धड़ाके के लिए तैयार थे, जो हुआ नहीं. चाय आई. हमने चाय पी. न वे कुछ बोलें, न मैं. आखिर उन्होंने ही मौन तोड़ा. मुझसे पूछा “प्राचार्य कौन रहेगा?” मैंने जवाब दिया, “आप”. उन्होंने फिर पूछा, “इस चेम्बर में कौन बैठेगा?” मैंने कहा – “आप”. उनका अगला सवाल था, “आप कहां बैठेंगे?” मैंने उस कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए, जिस पर उस वक़्त मैं बैठा था, जवाब दिया- “यहां, या फिर स्टाफ रूम में जाकर बैठ जाऊंगा.” अब तो उनके पास पूछने को कुछ बचा ही नहीं था. तो मैंने ही कहा, “देखिये, मैं दस बजे कॉलेज आऊंगा, दस्तख़त करूंगा. जब तक मन होगा, यहां रुकूंगा. फिर घर चला जाऊंगा. मेरा फ़ोन नम्बर आपके पास है ही. कोई ख़ास बात हो तो मुझे सूचित कर सकते हैं.”

और इस तरह जो छह माह बीते वे मेरी नौकरी के सबसे ज़्यादा तनाव रहित छह माह थे. और उन्हीं छह महीनों को याद कर रहा था मैं अरविंद की बात सुनते हुए. इस दौरान मैंने खूब किताबें पढ़ीं, खूब फिल्में देखीं और खूब भ्रमण किया. कॉलेज से निकल कर घर जाता तो रास्ते में एक वीडियो लाइब्रेरी थी वहां से दो तीन सीडी किराये पर लेता और घर जाकर उनका आनंद लेता. हर रविवार सुबह नाश्ता करके हम दोनों घर से निकल जाते. पूरे छह माह हमारा यह क्रम रहा कि एक सप्ताह अम्बाजी जाना है तो दूसरे सप्ताह माउण्ट आबू. हमारे पास स्कूटर था. उसी पर ये यात्राएं कीं. उसी दौरान कॉलेज में एक बड़ी हड़ताल हुई. प्राचार्य मुर्दाबाद के नारों के बीच मैं विद्यार्थियों के भीड़ में से निकल कर कॉलेज जाता और बेहद तनावग्रस्त प्राचार्य के सामने एकदम निष्फिक्र भाव से कुछ देर बैठकर फिर उसी मस्त चाल से घर लौट आता. यह सुखद गत्यवरोध कोई छह माह चला.