बात काफी पुरानी है. मैं शायद कॉलेज का
विद्यार्थी था. एक कवियित्री की कविताएं मुझे बहुत अच्छी लगती थीं. फिर यकायक वे
दृश्य से गायब हो गईं. वो मीडिया सक्रियता का ज़माना भी नहीं था कि कुछ पता चलता.
फिर कुछ समय बाद एक और कवयित्री अवतरित हुईं जिनका प्रथम नाम वही था, लेकिन कुलनाम
या सरनेम भिन्न था. हमें यह बात पता लगने
में काफी समय लग गया कि विवाह के बाद वे अपने पिता के कुलनाम की जगह पति का कुलनाम लगाने लगी थीं. वैसे भारतीय समाज में यह बात आम
है. लड़कियां विवाह के बाद उस कुलनाम को जिसका प्रयोग वे अब तक कर रही थीं, त्याग
कर अपने पति का कुलनाम लगाने लगती हैं.
कलाओं और शो बिज़ की दुनिया में ऐसा नहीं
भी होता है. हेमा मालिनी हमेशा हेमा मालिनी ही रहती हैं और आशा भोसले भी आशा बर्मन
नहीं हो जाती हैं. याद करें तो साहित्य की दुनिया से भी ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे.
मन्नू भण्डारी मन्नू यादव नहीं हुईं और न सुधा अरोड़ा सुधा भाटिया बनीं. लेकिन
हमारी सामाजिक व्यवस्था में इन्हें
अल्पसंख्यक अपवाद ही माना जाएगा. कई बार तो यह तक होता है कि विवाह के बाद लड़की को
इसलिए अपना मूल नाम बदल लेना होता है कि उस नाम वाली कोई लड़की उसके नए परिवार में
पहले से मौज़ूद थी.
लेकिन अब आहिस्ता-आहिस्ता यह स्थिति बदल
भी रही है. शायद इसकी एक वजह यह भी है कि पहले विवाह कम उम्र में हो जाते थे और तब
तक लड़की का अपना कोई व्यक्तित्व विकसित नहीं होता था, इसलिए उसे उसका विलयन नए
परिवार में कर डालने में कोई असहजता अनुभव नहीं होती थी. लेकिन अब, जबकि लड़कियां
जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में पांव जमा लेने और अपनी हैसियत बना लेने के बाद शादी
करने लगी हैं, वे भी इन पुरातन परिपाटियों पर सवाल उठाने, इन्हें चुनौती देने, और
कई बार नकारने तक लगी हैं. अमरीका की सिलिकॉन वैली की एक मनोचिकित्सक कैथरीन
वेल्ड्स ठीक ही कहती हैं कि “जैसे-जैसे
कामकाजी महिलाओं की संख्या में बढोतरी हुई है उनमें खुद की पहचान बनाने की इच्छा
भी बढ़ी है.” हमें भी अपने आस-पास ऐसी बहुत सारी महिलाएं मिल
जाएंगी जिन्होंने या तो विवाह के बाद अपना कुलनाम बदलना ज़रूरी नहीं समझा या पति का
कुलनाम अपनाने के बावज़ूद पिता के कुलनाम का भी त्याग नहीं किया. पुरानी परिपाटियों
को चुनौती देने या अस्वीकार करने के और
बहुत सारे प्रमाण वेशभूषा और सुहाग चिह्नों के मामलों में भी देखे जा सकते हैं.
वही सवाल कि सुहाग चिह्न की अनिवार्यता केवल स्त्री के लिए ही क्यों?
और इसी सवाल से मुझे याद आई यह बात कि हाल
में एक अमरीकी अभिनेत्री ज़ोई साल्डान्या के पति ने अपनी तरह से परम्पराओं को चुनौती
दे डाली. उनके पति मार्को पेरेगो ने विवाह के बाद अपना नाम बदलकर मार्को
साल्डान्या कर दिया. लेकिन समाज, चाहे वो अमरीका का ही क्यों न हो, भला इस तरह के
गैर पारम्परिक क़दमों को आसानी से कहां
स्वीकार करता है? वहां भी मार्को के इस काम की खूब आलोचना हुई, उनका मज़ाक
उड़ाया गया. और तब मार्को ने अपने फेसबुक पेज पर इन लोगों को यह जवाब दिया: “इसमें
इतनी हैरानी की क्या बात है? क्या इसलिए कि एक आदमी अपनी पत्नी का कुलनाम स्वीकार
करेगा?” ख़ास बात तो उन्होंने आगे कही है: “पुरुषों! अपनी पत्नी का कुलनाम ले लेने
से आपका वज़ूद ख़त्म नहीं हो जाएगा. बल्कि इसके साथ ही आप बदलाव के साथ खड़े होने वालों की
सूची में याद किए जाएंगे.”
और जैसा साहस मार्को ने दिखाया वैसा ही साहस
स्कॉटलैण्ड के ग्लासगो के एक म्यूज़िक
प्रमोटर बेन कॉगहिल ने भी दिखाया. बत्तीस
वर्षीय बेन का कहना है कि “मुझे अपनी पत्नी रोवान मार्टिन के नाम का उच्चारण काफी
पसन्द है इसलिए उसे बदल कर मैं बर्बाद नहीं करना चाहता." उन्होंने यह और कहा
कि “यह दिखाता है कि मैं पुरुष प्रधान समाज का विचार नहीं मानता और जो मैं हूं
उससे खुश हूं.”
लेकिन यह सब कहते हुए मैं इस बात को भी
छिपाना नहीं चाहता कि परम्परा से चले आ रहे रीति रिवाज़ों ने हमारी चेतना में बहुत
गहरे तक जगह बना रखी है. सन 2013 में एक मेट्रीमोनियल वेबसाइट टॉपनॉट डॉट कॉम ने
तेरह हज़ार दुल्हनों पर किए एक सर्वे के बाद बताया था कि अस्सी प्रतिशत महिलाएं
अपने पति के कुलनाम को ही अपनाना पसन्द करती हैं. ऐसे में कम से कम मुझे तो बीबीसी
के एक प्रोड्यूसर एण्ड्री ब्राउन का यह
क़दम बहुत पसन्द आया कि जब उन्होंने हेलेन स्टोन से शादी की तो दोनों के
कुलनाम को मिलाकर एक संयुक्त कुलनाम ब्राउनस्टोन्स बनाकर अपने नाम के साथ जोड़
लिया. विवाह अगर दो आत्माओं का मिलन होता है तो दो कुलनामों का भी मिलन क्यों न
हो?
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 16 जून, 2015 को पति ने लगाया पत्नी का सरनेम तो हंगामा क्यों शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.