Monday, March 23, 2009

अपना देश छोड़ने की पीड़ा


कैलिफोर्निया में बस चुके ईरानी आप्रवासी मां-बाप की संतान, लम्बे समय तक ‘टाइम’ पत्रिका की मध्यपूर्व सम्वाददाता और लिप्स्टिक जिहाद नामक चर्चित पुस्तक की लेखिका आज़ादेह मोआवेनी की नई संस्मरणात्मक किताब हनीमून इन तेहरान: टू ईयर्स ऑफ लव एण्ड डेंजर इन ईरान अपने पाठकों को एक बन्द समाज के भीतर झांकने का विरल अवसर प्रदान करती हैं. वे ‘टाइम’ पत्रिका के लिए महमूद अहमदीनेजाद के चुनाव की खबरें देने के लिए ईरान आती हैं और यहां आकर एक युवक के प्रेम में पड़कर ईरान के लिहाज़ से बहुत अपारम्परिक, बल्कि दुस्साहसिक ज़िन्दगी जीती हैं. वे वहां अपने बॉय फ्रैण्ड के साथ न केवल रहती हैं, विवाह पूर्व गर्भवती भी हो जाती हैं. ईरान में इस ‘ज़ुर्म’ की सज़ा मौत थी. वे लिखती हैं, “अगर हम न्यूयॉर्क, बर्लिन या ऐसी ही किसी और जगह रह रहे होते तो यह बात खास चिंता का विषय नहीं होती. लेकिन ईरान के इस्लामी गणतंत्र में यह मुमकिन नहीं है कि कोई शादी किए बगैर गर्भ धारण कर ले. किसी व्यक्ति के लिए ऐसी सामाजिक श्रेणी का यहां कोई अस्तित्व ही नहीं है.” आज़ादेह अपने गर्भ को छिपाते हुए मुस्लिम शैली से विवाह करने के लिए रिश्वत का सहारा लेती है. फिर भी यह भय तो बना ही रहता है कि अगर इस्लामी अधिकारियों को उसकी गर्भावस्था का पता चल गया तो खैर नहीं है. लेकिन, आज़ादेह बताती हैं कि रुढिग्रस्त ईरान में हर तरह की आज़ादी सुलभ थी, बशर्ते आप रिश्वत देने को तैयार हों.

किताब में आज़ादेह की प्रेम कथा के समानांतर एक और कथा चलती है. यह कथा एक मिस्टर एक्स की है जिन्हें उन पर जासूसी करने के लिए तैनात किया गया है. आज़ादेह लिखती हैं, “कुछ समय तो लगा जैसे यह शख्स एक नियंत्रक पति की भूमिका अदा कर रहा है.” कोई सात बरस तक लेखिका और मिस्टर एक्स लुका-छिपी का खेल खेलते रहते हैं. मिस्टर एक्स सब कुछ जानना चाहते हैं, लेखिका किससे मिल रही है, किसको इण्टरव्यू कर रही है, उसके दोस्त कौन- कौन हैं, वगैरह. और लेखिका यह जानने को व्यग्र हैं कि आखिर उसकी मंशा क्या है. और इस तरह उसके सामने उसकी मातृभूमि का नया चेहरा उभरता है. ऐसी मातृभूमि, जहां वाद्य वादन तक के लिए परमिट लेना पड़ता है और जहां शादी के स्वागत समारोह तक प्रतिबन्धित हैं.

बहुत सारे प्रसंग इस किताब को रोचक और मार्मिक बनाते हैं. ऐसा ही एक प्रसंग है जब वे एक विश्वविद्यालय में एक महत्वपूर्ण इण्टरव्यू के लिए जाती हैं लेकिन उन्हें दरवाज़े से ही महज़ इसलिए लौटा दिया जाता है कि उनके लबादे पर पर्याप्त बटन नहीं हैं. वे लिखती हैं, “इण्टरव्यू से वंचित किए जाने पर क्रोध और अपने अपमान की वजह से आंखों से आंसू फूट पड़े. मैंने बमुश्किल खुद को गार्ड लोगों के सामने हताश दिखाई देने से रोका और भाग कर अपनी टैक्सी में घुस गई. फिर खुल कर रोई.”. ईरान में औरतों की स्थिति पर टिप्पणी करती हुई वे बताती हैं कि उन्हें कभी भी यह कहा जा सकता है कि उन्होंने खुद को पर्याप्त रूप से ढक नहीं रखा है, या कभी भी किसी ऐसी वेब साइट को बन्द कर दिया जाता है जो स्त्री विषयक मुद्दों को उठाती है. इसी चक्कर में सरकार समाचार और राजनीति से सम्बद्ध हज़ारों वेब साइट्स को भी बन्द कर चुकी है. लेकिन इस सबके बीच भी ईरानी लोग उन नियमों-कानूनों को तोड़ने के अपने तरीके निकालते रहते हैं जिन्हें वे नापसन्द करते हैं. जैसे, बाहर की दुनिया से जुड़ने के लिए वे सेटेलाइट डिश का उपयोग कर लेते हैं. कभी युवा लोग हिम्मत करके प्रतिबन्ध तोड़ते हैं तो कभी अधिकारीगण अवहेलनाओं की अनदेखी करते हैं.

आज़ादेह के लेखन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि गहरे मानसिक संताप से गुज़रने के बवज़ूद बेहद संतुलित बनी रहती हैं और निर्मम तटस्थता के साथ चीज़ों को देखती-दिखाती हैं. उनकी निजी ज़िन्दगी के ये प्रसंग अंतत: हमें ईरान में विद्यमान स्थितियों की झलक दिखाते हैं और यह महसूस कराते हैं कि इंसान आज़ादी की कमी से कितना त्रस्त रहता है. मिस्टर एक्स उनसे कहते हैं कि जाओ दुनिया को कह दो कि हम जनतांत्रिक हैं, लेकिन आज़ादेह के अनुभव उन्हें इस बात को स्वीकार नहीं करने देते. उन्हें तो ईरान एक दमनकारी, बन्द देश ही लगता है और वे अंतत: अपने पति और बेटे के साथ देश छोड़कर लन्दन जा बसती हैं. देश छोड़ने का दर्द उनके एक-एक शब्द से रिसता है.

Discussed book:
Honeymoon in Tehran: Two Years of LOVE and DANGER in IRAN
By Azadeh Moaveni
Random House,
Hardcover, Pages 352
US $ 26

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 22 मार्च, 2009 को प्रकाशित.







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Sunday, March 8, 2009

आनन्द के पीछे छिपा अवसाद


अगर आपका यह खयाल है कि भ्रष्टाचार हिन्दी व्यंग्य लेखकों की कमज़ोरी है, तो कृपया विख्यात पत्रकार मैक्लीन जे स्टोरर की इस कृति, फॉर्वर्ड ओ पीजेण्ट को ज़रूर पढें. आप मान जाएंगे कि यह तो सर्वव्यापी है. अगर आप पहले से भी ऐसा मानते हैं तो भी कोई हर्ज़ नहीं. किताब फिर भी आपको निराश नहीं करेगी. तो, पहले किताब की ही बात कर ली जाए.

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक काल्पनिक शाखा यू एन मेट एक युवा ब्रिटिश समाज विज्ञानी डॉ फिलिप स्नो को वियतनाम भेजना चाहती है. इस शाखा का एक कर्मी, एक युवा स्वीडी, वहां से लापता हो गया है और इस कारण वहां भेजी जाने वाली सहायता राशि रुक गई है. यह भी शिकायत मिलती रही है कि बर्ड फ्लू पर शोध के लिए जो राशि दी जाती रही है उसके उपयोग में अनियमितताएं बरती जा रही हैं. स्नो को इस सबकी पड़ताल करनी है. स्नो वियतनाम के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानता. लेकिन उसने सुन रखा है कि वहां की धरती पर एक खास तरह का हानिप्रद रसायन, जिसका नाम एजेण्ट ऑरेंज है, पाया जाता है. यह रसायन कैंसर उपजाता है. ज़ाहिर है कि वह वियतनाम जाने को उत्सुक नहीं है. लेकिन उसे जाना पड़ता है.

स्नो के वियतनाम पहुंचने से वे सारे अधिकारी परेशान हो उठते हैं जो अपने-अपने तरीके से उस शोध राशि को खर्च करने की तैयारी में थे और हैं. वे लोग स्नो को अपनी जांच से विचलित करने के लिए अजीबो-गरीब हरकतें करते हैं, और वे हरकतें ही इस कृति को दिलचस्प बनाती हैं. किसम-किसम के ये अधिकारी बेहद लोलुप हैं और शुरू-शुरू में तो स्नो के प्रति लिजलिजी विनम्रता का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन जब उन्हें लगता है कि स्नो उनके झांसे में आने वाला नहीं है और अपने काम को ईमानदारी से अंजाम देने की ज़िद्द पर अड़ा है तो वे हताश होकर जासूसी के गम्भीर आरोप में उसके घर पर आधी रात गए एक छापा पड़वा देते हैं. वियतनाम में स्नो खुद को जिन चरित्रों से घिरा पाता है वे किसी भी तरह उस तथाकथित रसायन एजेण्ट ऑरेंज से कम घातक नहीं हैं, चाहे वे आक्रामक मार्क्सिस्ट चिंतक हों, वियतनाम में रह रहे विदेशी नशेड़ी हों, ज़रूरत से ज़्यादा सजग भिखारी हों, पगले वेटर हों या कठपुतली नौकरशाह.

रचना की रोचकता उन सारी स्थितियों में है जिन्हें ये बेईमान लोग अपनी कारगुजारियों से या बचाव के लिए पैदा करते हैं. एक फुटबाल मैच के दौरान वान इम्स्ट द्वारा खराब हो चुके टीके लगाने और उनके द्वारा जर्मन खिलाड़ियों की तबियत खराब हो जाने का वर्णन हो या एक मेक्सिकी अधिकारी की वियतनाम यात्रा के दौरान उसे खुश करने के हास्यास्पद प्रयासों और खुद उस अधिकारी की बेहूदा हरकतों का वर्णन, लेखक एब्सर्ड स्थितियां रचकर स्थितियों की भयावहता उजागर करने में कामयाब रहता है.

उसके इन प्रयासों में उसकी व्यंग्यात्मक भाषा खूब मददगार सिद्ध होती है. कुछ बानगियां पेश हैं: ‘वियतनाम में रहना ऐसा ही था जैसे आपको ओमेन के बीच धकेल दिया गया है. चारों तरफ डरावनी बातें घटित हो रही थीं और उनके खत्म होने के कोई आसार भी दिखाई नहीं दे रहे थे.’ या ‘पूरा परिवार एक आउटडोर कैफे में एक बड़ी गोल टेबल के चारों तरफ बैठ कर फुटबाल के आकार की एक आइसक्रीम को निपटाने की कोशिश कर रहा था’ या डॉ स्नो के बारे में लेखक की यह टिप्पणी कि ‘वियतनाम में उसकी नियति यही थी कि या तो वह उपहास का पात्र बने या एक एटीएम मशीन बना रहे. अक्सर तो उसे दोनों ही भूमिकाओं में रहना पड़ता था.’

स्टोरर ने खुद 15 बरस वियतनाम में बिताये हैं इसलिए उन्हें वहां की अन्दरूनी स्थितियों की अच्छी जानकारी है, और उस जानकारी का उन्होंने इस किताब में बहुत उम्दा तरह से इस्तेमाल किया है. फार्वर्ड ओ पीजेण्ट की कथा निकोलाई गोगोल की विख्यात कृति ‘इंस्पेक्टर जनरल’ की याद ताज़ा करती है तो इसका अन्दाज़े-बयां श्रीलाल शुक्ल की अमर कृति ‘राग दरबारी’ का स्मरण कराता है. किताब आपको बांधे रखने में पूरी तरह कामयाब है. आप पढते हुए आनंदित होते हैं, लेकिन उस आनंद के पीछे गहरा अवसाद भी घनीभूत होता रहता है.
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Discussed book:
Forward O Peasant
By Maclean J Storer
Published by Gauss Publishing
Paperback, 324 pages
Price US $ 16.95

राजस्थान पत्रिका के  रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 08 मार्च 2009 को प्रकाशित.



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Saturday, March 7, 2009

हम तो ऐसे हैं भैया

कोई चार बरस बाद फिर से दिल्ली के इन्दिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आना हुआ तो उसकी बदली शक्ल-सूरत देख कर बड़ा अच्छा लगा. चौबीस घण्टों के अंतराल में ही तीन अलग-अलग हवाई अड्डों को छूने का मौका मिला और अलग-अलग तरह के अनुभव हुए. दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर पहले से ज़्यादा चमक-दमक और सुविधाएं नज़र आईं लेकिन भीड़-भाड और अव्यवस्था में कोई बदलाव नहीं मिला. लंदन का हीथ्रो हवाई अड्डा अपनी विशालता की वजह से आतंकित करता लगा लेकिन यह भी महसूस हुआ कि उस विशालता के बावज़ूद वहां कोई अव्यवस्था नहीं है. अमरीका के सिएटल हवाई अड्डे को हालांकि उतना बड़ा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हमारे अपने हवाई अड्डे से काफी बड़ा होने के बावज़ूद वह अपनी सुविधाओं और व्यवस्थाओं में बहुत अंतरंग और आत्मीय लगा. इमिग्रेशन काउण्टर के ठीक पीछे बहुत बडी दीवार पर अमरीका में स्वागत की घोषणा देवनागरी लिपि में भी देखकर गर्व भी हुआ प्रसन्नता भी.

जयपुर से दिल्ली तक का टैक्सी का सफर यों तो ठीक था लेकिन बहरोड़ से निकलते ही जो भीषण ट्रैफिक जाम लगा मिला तो एक बार तो हमारे होश ही उड़ गए. गाड़ी से बाहर निकल कर पता किया तो बताया गया कि अगले दो-तीन घण्टे तो इस जाम के हटने की कोई सम्भावना नहीं है. यानि हमारी फ्लाइट तो मिस होनी ही है. गाड़ी में बैठे-बैठे ही अमरीका में बैठी बेटी से भी लगातार बात हो रही थी और हमारी चिंता के घेरे में वह भी आ रही थी. लेकिन जैसे कोई चमत्कार हुआ, जाम हटा और हम कुछ देर से ही सही, हवाई अड्डे पहुंच गये. फ्लाइट सात बजे थी, हम छह बजे पहुंच गए. वहां जाकर पता चला कि फ्लाइट भी एक घण्टा लेट है. इस बात से और ज़्यादा राहत मिली. चैक-इन हम जयपुर में अपने घर से ही कर चुके थे. तकनीक ने ज़िन्दगी को कितना आसान बना दिया है! जिस काम के लिए हवाई अड्डे पर लम्बी जद्दो-जहद करनी पड़ती थी, वह तो घर बैठे दो-चार मिनिट में ही हो गया था. न केवल दिल्ली की, लन्दन की चैक-इन भी हमने घर से ही कर ली थी और अपने बोर्डिंग पास हमारे हाथों में थे, अब तो बस सुरक्षा जांच और सामान जमा करवाने का काम बाकी था. ये काम भी आसानी से हो गए.

हम भारत में हैं और भारतीयों के बीच हैं यह एहसास हुआ कुछ देर बाद. ब्रिटिश एयरवेज़ की दिल्ली-लन्दन फ्लाइट में जहाज के अन्दर घुसने के इंतज़ार में हम जहां बैठे थे, उस जगह के ठीक सामने एक टेलीफोन बूथ था. नज़ारा यह था कि एक आदमी फोन पर बात करता और दस उससे करीब-करीब सटकर अपनी बारी का इंतज़ार करते. इंतज़ार करते हुए वे खूब जोर-जोर से बातें भी करते जा रहे थे. ज़ाहिर है ये दोनों स्थितियां टेलीफोन करने वाले के लिए कष्टप्रद थीं. थोडी देर बाद एक और नज़ारा सामने आया. जैसे ही यह घोषणा हुई कि बोर्डिंग शुरू हो रही है, लोग दरवाज़ों की तरफ उमड़ पडे. कुछ इस अन्दाज़ में कि अगर पहले नहीं घुसे तो सीट से हाथ धोना पड़ जाएगा, जबकि हरेक की सीट पूर्व निर्धारित होती है. आप पहले जाएं या बाद में, सीट वही रहती है. बार-बार कहा जा रहा था कि पहले अमुक-अमुक श्रेणी के लोग प्रवेश करेंगे, लेकिन इसके बावज़ूद दूसरी श्रेणियों के यात्री भी भीतर जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. बेचारी हवाई कम्पनी की लड़कियों की हालत उन्हें रोकने में खराब हो रही थी. मैं सोच रहा था, भारत में अभी भी हवाई यात्रा समाज के अपेक्षाकृत सम्पन्न और शिक्षित वर्ग तक सीमित है, लेकिन इस वर्ग के व्यवहार से यह कहीं भी नहीं लगता कि किसी तरह के अनुशासन और व्यवस्था के संस्कार इनमें हैं. ऐसा ही थोड़ी देर बाद फिर से महसूस हुआ. हवाई जहाज जब उड़ान भरने लगता है तो यात्रियों से अनुरोध किया जाता है कि वे अपने सेल फोन, लप टॉप वगैरह बन्द कर दें, सीट बेल्ट बांध लें और सीट अगर पीछे की हुई है तो उसे सीधा कर लें. ज़्यादातर यात्रियों ने इन निर्देशों की अनदेखी की और बेचारी एयर होस्टेसों को हर यात्री से अलग-अलग इस बात का अनुरोध करना पड़ा. लंदन से सिएटल की फ्लाइट में जहां, भारतीय यात्री अपेक्षाकृत कम थे, यह देखने को नहीं मिला. यात्रियों ने स्वत: निर्देशों का पालन किया बल्कि, जो थोड़े बहुत भारतीय भी फ्लाइट पर थे, देखा-देखी उनका व्यवहार भी बेहतर था. आखिर ऐसा क्यों होता है कि जब हम भारत में होते हैं तो हमारा व्यवहार अलग होता है, और जब हम भारत से बाहर होते हैं तो अलग!

क्या भारत में हम भारतीय हमेशा ऐसे ही रहेंगे?








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