जीवन और मृत्यु शाश्वत हैं, यह बात हर कोई जानता है लेकिन इसके बावज़ूद
इनमें से एक,
यानि
मृत्यु का खयाल ही हर किसी को विचलित कर देता है. मिर्ज़ा ग़ालिब ने क्या खूब कहा है
कि मौत का एक दिन मुअय्यन (निश्चित) है/ नींद क्यों रात भर नहीं आती. गोपालदास नीरज ने इसी बात को इस तरह कहा है: न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सी ही बात है/ किसी की आंख खुल गई किसी को नींद आ गई. लेकिन शायर और कवि चाहे जो कहें, मृत्यु का नाम ही
इतना डरावना होता है कि उसे सुनते ही हर कोई हिल जाता है. हम अपने चारों तरफ़ देखते
हैं कि चलाचली की वेला में हर सम्भव प्रयास किए जाते हैं कि मृत्यु को स्थगित किया
जा सके. अपनी सामर्थ्य के अनुसार पानी की
तरह पैसा बहाया जाता है, डॉक्टरों वैद्यों की चिरौरी की जाती है और अगर उस तरह की आस्था
हो तो तमाम देवी देवताओं के यहां गुहार लगाई जाती है. लेकिन ग़ालिब मिथ्या फिर भी साबित नहीं हो पाते हैं!
सारी दुनिया में स्वास्थ्य की स्थितियां सुधरती जा रही हैं, चिकित्सा सुविधाएं बेहतर होती
जा रही हैं और इनके फलस्वरूप अधिक उम्र वाले लोगों की तादाद भी बढ़ती जा रही है. लेकिन
जब उन्हें यमराज का बुलावा आता है तो उनके परिजन, जो स्वभावत: उनकी तुलना में युवा होते हैं, उन्हें अस्पताल ले जाते हैं और
विभिन्न किस्म के जीवन रक्षक उपकरणों की सहायता से उनके जीवन के विराम चिह्न को आगे धकेलने का हर सम्भव प्रयास करते
हैं. ऐसे में बहुत बार परिवार के वृद्धजन को अपने जीवन के आखिरी दिनों का बहुत सारा
हिस्सा अस्पताल के बिस्तर पर कई तरह के जीवन रक्षक उपकरणों के तारों और नलियों से
घिरे हुए व्यतीत करना पड़ता है और बहुत बार वहीं से वे जीवन को अलविदा भी कह देते
हैं. मृत्यु को लेकर करीब-करीब सारी दुनिया में एक ऐसी संवाद हीनता व्याप्त है कि
कभी कोई अस्पताल के बेड पर लेटे उस वृद्ध या
वृद्धा से तो पूछता ही नहीं है कि आखिर वो ख़ुद क्या चाहता है!
ऐसे में ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैण्ड मेडिकल असोसिएशन का एक प्रस्ताव नई
रोशनी लेकर आया है. असोसिएशन ने एक डेथ लैसन यानि मृत्यु के पाठ का
प्रस्ताव किया है. यह पाठ किसी अतिरिक्त अथवा नए विषय के रूप में नहीं पढ़ाया जाएगा, अपितु इसकी विषय वस्तु को वर्तमान
विषयों जैसे जीव विज्ञान, औषध विज्ञान और नीति शास्त्र जैसे विषयों में ही शामिल कर लिया जाएगा. इस विषय की ज़रूरत के बारे
में बताते हुए असोसिएशन से सम्बद्ध डॉ
रिचर्ड रिड ने बताया है कि उनका उद्देश्य यह है कि युवा अपने मां-बाप और दादा-दादी
से उनके जीवन के अंत को लेकर सहजता से बात
कर सकें और यह जान सकें कि वे अपना अंतिम समय किस तरह बिताना चाहते हैं. अब तक
सारी दुनिया में लोग मौत के विषय पर बात करने से कतराते हैं. अगर युवाओं को इसके
लिए मानसिक तौर पर तैयार कर दिया जाए तो वे इस बारे में बेहतर निर्णय कर सकेंगे कि
उनके निकटस्थ परिजनों का आखिरी समय किस तरह व्यतीत हो. असल में, डॉ रिड कहते हैं कि युवा यह
जानते ही नहीं है कि वे अपने निकटस्थ लोगों का आखिरी समय और ज़्यादा सुखद बना सकते
हैं. अभी स्थिति यह है कि ऑस्ट्रेलिया में मात्र पंद्रह प्रतिशत लोग ही अपने घर
में अपने परिवार जन के बीच रहकर आखिरी सांस
ले पाते हैं, शेष पिच्चासी प्रतिशत को यह छोटी-सी खुशी भी नसीब नहीं होती
है और वे अस्पताल के बेगाने माहौल में ही दम तोड़ने को मज़बूर होते हैं. बहुत
छोटी-सी तैयारी से उन्हें यह सुख प्रदान किया जा सकता है. डेथ लैसन इसी दिशा में
उठाया गया एक क़दम है.
डॉ रिड का सोच यह है कि स्कूली
पाठ्यक्रम में बच्चों को ज़रूरी कानूनों और उनके नैतिक कर्तव्यों के बारे में तो
पढ़ाया ही जाए, इच्छा मृत्यु के
बारे में भी बताया जाए ताकि वे अपने परिजनों से संवाद कर यह जान सकें कि वे किस
तरह का और किस हद तक इलाज़ चाहते हैं और अपने अंतिम समय के बारे में उनकी परिकल्पना
क्या है. यह सब जानने के बाद परिवार के लोग जाने को तैयार बैठे अपने साथी के बारे
में अधिक विवेकपूर्ण और मानवीय निर्णय कर सकेंगे, ऐसा निर्णय जो न केवल प्रियजन की इच्छा के अनुकूल
हो, कानून सम्मत भी हो.
डॉ रिड का खयाल है कि अगर उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो इससे एक बेहतर
शुरुआत होगी और मेक्सिको तथा आयरलैण्ड की भांति ऑस्ट्रेलिया में भी मृत्यु अवसाद
की बजाय उत्सव का विषय बन सकेगी. उल्लेखनीय है कि इन देशों में बाकायदा मृत्यु का
उत्सव मनाया जाता है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 17 जुलाई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.