हरिवंश राय ‘बच्चन’ के एक बेहद
लोकप्रिय गीत की कुछ पंक्तियां हैं: जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के
जड़ नियम से/ पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है/ है अँधेरी रात पर दीवा
जलाना कब मना है। ये
पंक्तियां मुझे याद आईं एक साहसी महिला शबीना मुस्तफ़ा की संघर्ष
गाथा को जानते हुए. इस बात से किसी
को कोई अंतर नहीं पड़ना चाहिए कि वे किस देश की नागरिक हैं. उनकी शादी को महज़ अठारह
महीने हुए थे और दो माह का बेटा उनकी गोद में था, तभी एक दिन उन्हें
यह मनहूस ख़बर मिली कि उनके पति फ्लाइट लेफ़्टिनेण्ट सईद सफी मुस्तफ़ा लापता हैं! तब वे विश्वविद्यालय में पढ़ रही
थीं. ज़िंदगी जैसे थम-सी गईं. बहुत सारे सपने देखे थे शबीना ने, वे सब तहस-नहस हो गए. बहुत सारे सपने उनके पति ने भी देखे थे.
एक सपना वे यह भी देखा करते थे कि ज़िंदगी में कभी आगे चलकर वे समाज के वंचित तबकों
के बच्चों के लिए एक स्कूल खोलेंगे. लेकिन जब सपने देखने वाली आंखें ही नहीं रहीं
तो सपनों की बात ही क्या की जाए!
लेकिन सबकुछ के बावज़ूद ज़िंदगी तो चलती ही है. उसे चलाना ही पड़ता है. शबीना ने
भी अपनी सारी हिम्मत बटोरी और ज़िंदगी को पटरी पर लाने में जुट गई. अगले दसेक बरस
भारी संघर्ष के रहे. लेकिन वो जूझती रही. तभी अनायास उसकी ज़िंदगी में एक ऐसा पल
आया कि काफी कुछ बदल गया. हुआ यह कि जान-पहचान की एक औरत अपनी बेटी को लेकर उसके
पास आई. वो अपनी बेटी को सिलाई की क्लास में दाखिला दिलवाना चाहती थी लेकिन उसे यह
कहकर वहां से भगा दिया गया था कि उस लड़की को पढ़ना लिखना नहीं आता है इसलिए उसे
वहां भर्ती नहीं किया जा सकता है. अब मां
यह गुज़ारिश कर रही थी कि शबीना उस बच्ची को पढ़ा दिया करे, और अगर मुमकिन हो तो पास-पड़ोस की कुछ और बच्चियों
को भी वह पढ़ा दे. पढ़ाने के लिए जो जगह सोची गई वह थी शबीना के घर का खाली पड़ा
गैरेज. शबीना ने उस पल को याद करते हुए बाद में बताया, “जैसे ही मैंने उन बच्चियों की चेहरों की तरफ देखा, मैं उन्हें मना करने की हिम्मत
नहीं जुटा सकी.” और इस तरह महज़ चौदह बच्चियों से उस परियोजना की शुरुआत हुई जो आज गैरेज
स्कूल के नाम से विख्यात है. शुरुआती
समय अभावों से भरा था. न फर्नीचर था, न ब्लैकबोर्ड, न अभ्यास पुस्तिकाएं और न लेखन सामग्री. लेकिन वो किसी ने कहा
है न कि लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया, तो दोस्तों ने मदद की, और काम चल निकला. किसी ने लकड़ी दी,किसी ने पत्थर, किसी ने ब्लैकबोर्ड भेंट किये तो किसी ने लेखन सामग्री. खुद शबीना सुबह
नौकरी पर जाती और दोपहर बाद जब लौटती तो उसके
पास अपने दफ्तर के सहकर्मियों द्वारा दिये
गए ऑफिस के बचे खुचे कागज़ होते, और होतीं छोटी-बड़ी पेंसिलें. वो खुद कागज़ पर लाइनें खींच कर अभ्यास
पुस्तिकाएं तैयार करती और बच्चों को पढ़ाती.
आहिस्ता आहिस्ता शबीना को प्रायोजक मिले, उसने स्कूल के लिए बेहतर जगह किराये पर ली और
बच्चों को ज़रूरी सामान्य शिक्षा देने के काम को विस्तार देते हुए चिकित्सा सहायता, प्रौढ़ शिक्षा, पोषण कार्यक्रम, शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम, बचत कार्यक्रम वगैरह भी संचालित करने शुरु किए.
लेकिन इन सबको करते हुए शबीना अपने मूल काम को नहीं भूली. उसने अपने यहां आने वाली
बच्चियों के आत्म विश्वास को बढ़ाने और उनके नज़रिये को व्यापक बनाने के लिए बहुत
सारे कार्यक्रम चलाए. परिणाम यह हुआ कि उस शहर के कुछ सबसे निर्धन बच्चों ने जब
अपनी नाट्य प्रस्तुतियां दीं तो शहर के सबसे धनी लोग उनके लिए तालियां बजा रहे थे.
जो बच्चे कभी अपने मुहल्ले की परिधि को नहीं लांघ सके थे वे शैक्षिक भ्रमण पर दूसरे
शहरों और प्रांतों में जाने लगे थे. अब उनके पास स्कूल यूनिफॉर्म भी थी और साफ़
सुथरी किताबें-कॉपियां और आकर्षक बस्ते
भी.
शबीना जो कर रही थी और कर रही है, उसमें रुकावटें भी कम नहीं आईं. लेकिन हर संकट ने उसका हौंसला
और बुलंद किया और वो नई ऊर्जा से अपना काम करती रही. आज उसका गैरेज स्कूल पांच सौ
बच्चियों के जीवन में शिक्षा का उजाला फैला रहा है. अब स्कूल के पास तमाम ज़रूरी
संसाधन हैं और सबसे बड़ी बात यह कि उस स्कूल से
पढ़कर निकलने वाली बहुत सारी बच्चियां अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने में
कामयाब हुई हैं. शबीना अब पहले से ज़्यादा
सुखी और संतुष्ट हैं. लेकिन बीते दिन अब भी उनकी यादों में जस के तस हैं. भावुक
होते हुए वे बताती हैं, “मेरे पति की मौत के कुछ
ही दिनों बाद कुछ बच्चे मेरे पास आए और बोले कि आपके स्वर्गीय पति ने हमें अपनी
शिक्षा पूरी करने के लिए आर्थिक सहायता दी थी.” जो काम उनके पति ने शुरु किया था, उसे आगे बढ़ाने का सुख अब उनके
सारे निजी दुखों पर हावी हो चुका है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 जनवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.