ऐसे अनुभव बहुत बार होते हैं. कल फिर हुआ.
कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था ना! एक
आयोजन में शामिल होने का मौका अपन को भी मिला. मैं जब भी किसी आयोजन में
जाता हूं मुझे शादी की दावत याद आए बिना नहीं रहती है. मुझे शादी की सारी दावतें
एक जैसी लगती हैं. एक जैसा मेन्यू और एक जैसा माहौल. फर्क़ होता है तो बस अंकों का.
कहीं तीन मिठाइयां तो कहीं पांच. और ऐसा ही अनुभव वैचारिक अथवा अकादमिक आयोजनों में
जाकर भी होता है. वही स्वागत, वही
माल्यार्पण, वही लम्बे-लम्बे भाषण, वही आभार प्रदर्शन, वही स्मृति चिह्न समर्पण,
वही समय की कमी की शिकायत और वही पारस्परिक तारीफें. अंतर सिर्फ इस बात का कि इस आयोजन में मंच पर तीन
विशिष्ट जन और उसमें सात. फिर भी इसे शिकायत न माना जाए! असल में हमने अपने कार्यक्रमों का एक सांचा
गढ़ लिया है और हर सम्भव कोशिश करते हैं कि जो भी करें वो उसी सांचे के अनुरूप हो.
अंग्रेज़ी में जिसे आउट ऑफ द बॉक्स कहते हैं उस तरह से सोचने या करने का साहस हम कर
नहीं पाते हैं, इसलिए जैसा चलता आ रहा है
वैसा ही चलता चला जाता है. और इस सबके बावज़ूद मैं इन कार्यक्रमों में जाता हूं,
सोत्साह जाता हूं, शिरकत करता हूं और हर बार कुछ न कुछ नया जान-सीख-ले कर लौटता
हूं. प्राय: यह भी सोचता हूं कि अगर मुझे कोई कार्यक्रम करना होगा तो मैं कौन नौ
की तेरह कर लूंगा! वो सांचा तो मेरे भी सामने रहेगा.
तो मैं बात कल के कार्यक्रम की कर रहा था.
कार्यक्रम के दो भाग थे. कुछ विशिष्ट महिलाओं का सम्मान और एक विचार गोष्ठी. उस
विचार गोष्ठी में इन सम्मानित महिलाओं में से कुछ और कुछ अन्य स्त्री-पुरुष
वक्ता थे. अवसर के अनुरूप विचार गोष्ठी का
विषय महिला सशक्तिकरण के आकलन से सम्बद्ध था. संयोग से इस गोष्ठी का पहला वक्ता
मैं था और मैंने बहुत बेबाकी से यह बात कही कि यह विषय ऐसा नहीं है कि आप अधिकार
पूर्वक कोई एक पक्ष चुन सकें. आप न तो यह कह सकते हैं कि महिला सशक्तिकरण के मामले
में हालात जस के तस हैं, और न यह कह सकते हैं कि आज की महिला पूरी तरह से सशक्त और समर्थ हो चुकी है. मेरे बाद
बोलने वाले वक्ताओं ने अपनी अपनी दृष्टि से स्थिति का आकलन प्रस्तुत किया और मुझे
स्वीकार करना चाहिए कि हरेक की बातों में कुछ न कुछ नया और विचारोत्तेजक था. और इसी नए के लिए तो हम इस
तरह के आयोजनों में जाते हैं!
लेकिन एक वक्ता का वक्तव्य इन सबसे हटकर
था. वे ‘देवभाषा’ के विद्वान थे और
उन्होंने अपनी बात शास्त्रों में गाई गई स्त्री महिमा से शुरु की. एक वक्ता के रूप
में हममें से बहुतों को बहुत बार वर्तमान तक आने के लिए अतीत का सीढ़ी की मानिंद
प्रयोग करना पड़ता है. लेकिन थोड़ी देर में लग गया कि वे अतीत के स्वर्णकाल में ही
विचरण करना चाहते हैं. अतीत से उनका मोह
इतना प्रगाढ़ और तृप्त कर डालने वाला था कि वर्तमान तक आने की उन्हें कोई
आवश्यकता ही महसूस नहीं हो रही थी. और अतीत भी तथ्य कथन या सजीव चरित्रों के
माध्यम से नहीं, सुभाषितों के माध्यम से. यानि कुछ कुछ इस तरह कि जब हमारे
शास्त्रों में लिख दिया गया है कि स्त्रीदेवी है, शक्ति स्वरूपा है, तो बस है! अब और सोच विचार की
ज़रूरत ही क्या है?
जैसा कल इस वक्तव्य के रूप में सामने आया,
वैसा उन बहुत सारी गोष्ठियों में सामने आता है जिनमें समकाल की किसी अवस्था पर
विचार किया जा रहा होता है. और गोष्ठियों में ही क्यों? हमारे रोज़मर्रा के जीवन
में भी बहुत बार ऐसा होता है कि जब बात हमारी हो रही होती है तो हम उसे खींच कर
अपने पुरखों तक ले जाते हैं. हमारे टू बी एच के के फ्लैट में कोई आता है तो हम
बलपूर्वक यह बताए बिना नहीं रहते हैं कि हमारे पुरखे तो हवेलियों के स्वामी थे.
मेरे पड़ोस में एक बच्चा था, कोई ढाई तीन साल का. अक्सर मेरे पास आ जाता था. मैं जब
भी उससे उसके बारे में कुछ पूछता, जैसे यह कि तेरे पास कितनी पेंसिलें हैं, तो
उसका जवाब हमेशा अपने बड़े भाई के बारे में होता, कि गौरव के पास सात पेंसिलें हैं.
उस बच्चे के मन में कोई चालाकी नहीं थी, लेकिन फिर भी वो अपने सहज बोध से अपनी
हीनता को छिपाने के लिए अपने भाई की आड़ लेता था. लेकिन हम जो पढ़े लिखे हैं, और
बहुत सोच-विचार के बाद कुछ कहते हैं, वे भी जब वर्तमान की बात करने के लिए अतीत की
आड़ लेते हैं तो इसे क्या कहा जाए?
शुतुरमुर्ग के बारे में तो सुना है ना
आपने!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 10 मार्च, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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