कोई पांचेक साल बाद फिर अहमदाबाद जाने का
सुयोग जुटा. पिछली बार गया था तो साबरमती आश्रम के माहौल और अदालज री बाव की सुखद
स्मृतियां बहुत दिनों तक मन प्राण को मुदित करती रही थीं. इस बार अमदावाद नी गुफा,
जिसे हुसैन दोषी गुफा के नाम से भी जाना जाता है, सूची में सर्पोपरि थी. जाने की वजह इस बार भी
वही थी: एक विवाह समारोह में सहभागिता. हम
मध्यमवर्गीय लोगों के जीवन में अधिकांश यात्रा प्रसंग तो इन्हीं सामाजिक वजहों से
आते हैं. याद आया कि पिछली बार की यात्रा में वरमाला के बाद वर-वधू को ‘आशीर्वाद’
यानि लिफाफा देने और फोटो खिंचवाने के लोग
किस तरह पंक्तिबद्ध अपनी बारी की शालीन प्रतीक्षा कर रहे थे! जब एक जन फोटो वगैरह
खिंचवा कर हटता तभी दूसरा आगे जाता. मेरे लिए यह दृश्य विलक्षण और परम आनंदपूर्ण
था. इस बार फिर इसी दृश्य को देख कर मुदित होने का आकांक्षी था. परिवार और आयोजन
स्थल वही थे अत: स्वाभाविक है कि अतिथि
समुदाय भी कमोबेश वही था. लेकिन मेरे सुख की पुनरावृत्ति नहीं हुई. आप कुछ और
समझें उससे पहले ही स्पष्ट कर दूं कि होस्ट परिवार ने वैसी कोई व्यवस्था रखी ही
नहीं. और एक तरह से तो अच्छा ही हुआ. मैं तो हर शादी में जाकर बेचारे वर-वधू के
बारे में सोच कर दुखी होता हूं कि इतने सारे मेहमानों के साथ फोटो खिंचवा कर
स्माइल देते-देते वे कितने पस्त हो जाते होंगे! असल में शादी का यह फोटो सेशन एक ऐसी
बेकार की रिवायत है जिससे जितनी जल्दी छुटकारा पा सकें, पा लिया जाना चाहिये. न घर
वाले कभी उन तस्वीरों को देखते होंगे न मेहमानों को कभी वे तस्वीरें देखने को
मिलती होंगी! फिर इतनी ज़हमत किस लिए?
इस विवाह का एक दृश्य मुझे बहुत लम्बे समय
तक याद रहेगा. हम लोग विवाह में वधू पक्ष की तरफ से सम्मिलित थे. अंतरजातीय विवाह
था. वर और वधू दोनों पक्षों ने सहज स्वाभाविक उल्लास से इस रिश्ते को स्वीकार किया
और पूरे मन से विवाह समारोह का आयोजन किया. विवाह की रस्में दोनों समाजों की
प्रथानुसार सम्पन्न की गईं. दृश्य यह था. वर वधू मंच पर खड़े थे. वधू की मां ने
कन्यादान की रस्म पूरी की और मंच से नीचे उतरते उतरते उनकी रुलाई बहुत ज़ोर से फूट
पड़ी. उन्हें यह लगा होगा कि बस, अब इस क्षण से मेरी बेटी ‘पराई’ हो गई. इस प्रतीति
पर भला कौन होगा जो द्रवित होने से खुद को रोक सके. बहुत स्वाभाविक था यह. लेकिन
तभी मेरी नज़र दुल्हन की तरफ चली गई. और मुझे यह देखकर अत्यधिक अचरज हुआ कि वह इस भाव प्रवाह से एकदम अछूती, अपने अनुराग में मुदित-मगन
थीं. जी, आप ग़लत न समझें. यह लिखते हुए मेरे मन में उस युवती के प्रति किसी भी तरह की शिकायत का कोई भाव नहीं है. यह एक छवि भर है.
असल में, इस दृश्य के बारे में लिखने की
ज़रूरत मुझे इसलिए महसूस हुई कि इसने दो एक महीने पहले सम्पन्न एक और विवाह की याद
मेरे मन में ताज़ा कर दी. उस विवाह में हम लोग वर पक्ष की ओर से सम्मिलित थे. वह
विवाह भी हमारे बाद वाली पीढ़ी की संतति का ही था, और प्रेम विवाह ही था जो दोनों पक्षों के अभिभावकों की आनंदपूर्ण
सम्मति से सम्पन्न हुआ था. उस विवाह के बाद वर या वधू किसी ने फेस बुक पर जो बहुत
सारी तस्वीरें पोस्ट की थीं उनमें से एक तस्वीर और उस पर आई हुई बहुत सारी मज़ेदार
प्रतिक्रियाओं की स्मृति ने मुझे इस दृश्य के बारे में लिखने को प्रेरित किया. वह
तस्वीर विदाई के क्षणों की थी जिसमें वधू
के साथ-साथ वर भी लगभग रुदन मुद्रा में था. इसी बात को लेकर वर-वधू के मित्रों ने
अपनी प्रतिक्रियाओं में वर की मैत्रीपूर्ण खिंचाई की थी. हम सब जानते हैं कि रोना
बहुत संक्रामक होता है. अगर आपके पास कोई रोने लगे तो आप अपने को भी वैसा ही करने
से रोक नहीं पाते हैं. तो उस समय जब दुल्हन अपने मां-बाप से विदा लेते हुए रोने लगी
होगी तो उसके वियोग भाव से दूल्हा भी अप्रभावित नहीं रहा होगा और उसी क्षण को
फोटोग्राफर ने कैद कर लिया था. लेकिन हमारे यहां इस बात को कोई कैसे स्वीकार कर ले
कि जब दुल्हन विदा हो रही है तो दूल्हा भी
रुंआसा हो जाए! तो ये थी विवाहों की दो छवियां. और हां, बात तो मैंने अमदावाद नी
गुफा के ज़िक्र से शुरु की थी. गूगल कर चुकने के बाद भी हम यह न जान पाए थे कि उसे
शाम चार बजे से पहले नहीं देख सकते, इसलिए भरी दोपहर वहां जाकर भी उसे देखे बिना
लौटना पड़ा. यानि अहमदाबाद एक बार और जाने
का कम से कम एक आकर्षण तो मन में है ही!
•••
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 24 फरवरी, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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