वो कहते हैं ना कि हर चीज़ को देखने के दो नज़रिये होते हैं - गिलास
आधा खाली है, या गिलास आधा भरा हुआ है, तो जहां बहुत सारे मित्र इस बात से बहुत
व्यथित हैं कि आज राजनीति में अभिव्यक्ति का स्तर बहुत गिर गया है और बड़े नेता भी
बहुत छोटी बातें करने लगे हैं, मैं इस बात को इस तरह देख कर प्रसन्न हूं कि आज
राजनीति के हवाले से भाषा और शब्दों पर भी गम्भीर विमर्श होने लगा है. लोग बहुत
भावुकता के साथ उन दिनों को याद करते हैं जब बड़े नेता बड़े रचनाकार भी होते थे,
गांधी, नेहरु राजेन्द्रप्रसाद आदि ने न केवल आत्मकथाएं लिखीं, साहित्यिक समुदाय ने
भी उन आत्मकथाओं को हाथों-हाथ लिया. उस ज़माने के बहुत सारे राजनेता ऐसे थे जिनके
साहित्य की दुनिया के बड़े हस्ताक्षरों से आत्मीय और अंतरंग रिश्ते थे. इनमें
राममनोहर लोहिया का नाम बहुत ज़्यादा स्मरण किया जाता है. बहुत सारे राजनेताओं ने
अपनी-अपनी तरह से साहित्य सृजन भी किया और साहित्यिक बिरादरी ने अगर लम्बा समय बीत
जाने के बाद भी उन्हें याद रखा हुआ है तो माना जाना चाहिए कि उस सृजन में साहित्य
भी रहा होगा, वर्ना जब आप कुर्सी पर होते हैं तो आपकी यशोगाथा गाने वाले आपको
शून्य से शिखर पर पहुंचा कर भी दम नहीं लेते हैं, लेकिन आपके भूतपूर्व होते ही
सारा मजमा उखड़ जाया करता है.
लेकिन मैं बात कुछ और कर रहा था. इधर हममें से बहुतों को लगता है कि
हमारे बड़े (और छोटे भी) राजनेताओं को शायद अपनी तर्क क्षमता पर कम भरोसा रह गया है
इसलिए वे फूहड़, अभद्र और अस्वीकार्य भाषिक अभिव्यक्ति का सहारा लेने को मज़बूर हो
गए हैं. हममें से जो थोड़े बहुत भी पढ़े लिखे हैं वे अपने दैनिक जीवन में बहुत
गुस्से की स्थिति में भी शायद कभी उस तरह की बातें नहीं करते हैं. आखिर शिक्षा
आपको संस्कार तो देती ही है ना! वो आपको सलीके से बात कहने का कौशल भी सिखाती है. अगर
आपको कभी भाषिक कौशल की बेहतरीन बानगियां देखने का मन करे तो मनोहर श्याम जोशी के
उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ को कहीं से भी पढ़ना शुरु कर दें. लेकिन इधर हमारे
माननीय गण जिस तरह की भाषा में अपनी बात
कह रहे हैं वो एक तरफ़ और हममें से बहुत सारे उनकी कही बातों को जिस तरह समझ कर
लाठियां या तलवारें भांजने में जुटे हैं वो दूसरी तरफ. बहुत बार तो वह हो जाता है
जिसे फिल्म ‘प्यासा’ के उस गाने में मरहूम
साहिर लुधियानवी साहब ने बखूबी कह दिया था
– जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी! असल में हो यह रहा है कि कहने वाला
चाहे जो कहे, हम वही सुन रहे हैं जो हम सुनना चाहते हैं. फिर बेचारा वो लाख कहे कि
‘मैंने ऐसा तो नहीं कहा था’, हम अपने कानों में रुई डाल लेते हैं. और इधर जब से
हमारे समाज में सोशल मीडिया का प्रचलन बढ़ा है स्थितियां और विकट होती जा रही हैं.
अखबार तो चौबीस घण्टे में एक बार ही निकलता है, रेडियो दूरदर्शन पर बहुत संयम बरता
जाता है, लेकिन यह जो नया औज़ार हमारे हाथों में आ गया है, बहुत बार लगता है जैसे
वो कहावत सही सबित हो गई है! कौन-सी? अरे
भाई वही...आप समझ लीजिए ना. अगर मैं लिखूंगा तो पता नहीं किस-किस की भावनाएं आहत
हो जाएं! इशारा कर देता हूं. वो कहावत जिसमें
किसी प्राणी के हाथ
में दाढ़ी बनाने का औज़ार आ जाने वाली बात कही गई है. बेसब्री इतनी अधिक है कि पूरी
बात पढ़े-सुने या समझे बिना ही वीर जन मैदान में कूद पड़ते हैं.
और शायद इसी बेसब्री का एक परिणाम यह भी हो रहा है कि जो बात एक बार
कह दी जाती है, वही बार-बार गूंजती रहती है. जैसे किसी ने एक बार कह दिया कि
पत्रकारों को तटस्थ होना चाहिए, तो बस जिसकी बात हमें पसन्द न आई उसपर हमने फौरन
तटस्थ न होने का इल्ज़ाम मढ़ दिया. कोई यह सुनना या सोचना नहीं चाहता कि अखिर इस
तटस्थ शब्द का सही अर्थ क्या है! तट पर स्थित. यानि जो धार में न हो, किनारे पर
हो. यानि जो किसी एक का पक्ष न ले! अब, ज़रा एक बात सोचिये! क्या आप एक अपराधी और
उसे दण्डित करने वाले में से किसी एक को नहीं चुनेंगे और तटस्थ रहेंगे? और यह भी
याद रखिये कि ज़िन्दगी हमेशा स्याह और सफेद ही नहीं होती है. उसके और भी अनेक रंग
होते हैं. तब आप अपने विवेक से ही चुनाव करते हैं. राष्ट्रकवि दिनकर ने क्या खूब कहा है:
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 03 फरवरी, 2015 को असम्बद्ध भाषा, राजनीति और हम लोग शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 03 फरवरी, 2015 को असम्बद्ध भाषा, राजनीति और हम लोग शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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