वसंत देव ने क्या खूबसूरत गीत लिखा था
‘उत्सव’ फिल्म में – मन क्यूं बहका रे
बहका.... जितना सुरीला गायन उतने ही अर्थपूर्ण शब्द और भाव भी. लेकिन मेरा ध्यान
तो फिलहाल मन के बहकने पर अटका हुआ है. यह मन भी अजीब शै है! कहां से कहां पहुंच
जाता है, और वो भी बेवजह! कोई तर्क काम नहीं करता और कोई रुकावट बीच में नहीं आती.
आप चाहें तो भी इसके भटकने पर विराम नहीं लगा सकते. मैं अपनी ही बात करूं. कल एक
साहित्यिक आयोजन में भाग लेने का मौका मिला. वहां एक वक्ता ने, जो मेरी भाषा के एक
सुपरिचित हस्ताक्षर हैं, एक बहुत ही अच्छी बात कही. जिस आयोजन की बात मैं कर रहा हूं वो एक नई
शुरुआत थी और उसके समापन समारोह में हम सब उपस्थित थे. आयोजक गण इस आयोजन में
सहयोग देने वालों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित
कर रहे थे. तब, उन वक्ता महोदय ने मंच से कहा कि लेखकों में भी ऐसे बहुत
सारे लोग होंगे जो इस तरह के आयोजनों में
आर्थिक सहयोग दे सकें. मुझे यह बात बहुत
महत्वपूर्ण लगी. तब से अब तक मैं यही सोच रहा हूं कि हम इतने सारे साहित्यिक
आयोजनों में सहभागिता करते हैं, और जानते हैं कि करीब-करीब सारे आयोजन दूसरों के
आर्थिक सहयोग से ही सम्भव होते हैं, लेकिन क्यों हमारे मन में यह बात नहीं आती कि
हम भी इन आयोजनों में कोई सहयोग दें! हम यानि हममें से वे लोग जिनके लिए ऐसा करना
सम्भव है. उन वरिष्ठ साहित्यकार महोदय ने
तो कल भी यह बात स्पष्ट कर दी थी. उन्होंने कहा था कि हममें से बहुत सारे ऐसे हैं
जिनके बच्चे उनके आर्थिक संसाधनों के मुखापेक्षी नहीं हैं. यानि जब हमारी ज़रूरतें
ठीक से पूरी हो रही हैं तब क्या अपनी रुचि
के उपक्रमों के लिए हमें सहयोगी नहीं बनना चाहिए? इसे उलट कर कहूं तो यह कि क्या
हमें ही हमेशा दूसरों का मुखापेक्षी बना
रहना चाहिए?
कल से यह बात मेरे जेह्न में घूम रही है.
और इससे जुड़ी बहुत सारी बातें आ-जा रही हैं. अनायास मुझे बहुत बरस पहले का एक
प्रसंग याद आ गया. मैं एक छोटे कस्बे में कार्यरत था जहां किसी तरह की कोई
साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधि नहीं होती थी. तब उसी कस्बे में मेरे एक मित्र थे जो
एक ऐसे महकमे में ऊंचे पद पर कार्यरत थे जहां किसी को एक संकेत भर कर
देना उसकी जेब से खासी बड़ी रकम निकलवाने के लिए पर्याप्त था. संगीत प्रेम उन मित्र
और मेरे बीच के रिश्ते का आधार था. एक दिन गपशप के दौरान मैंने उन मित्र से कहा कि
उनका तो इतना प्रभाव है, क्यों नहीं वे उसका उपयोग करके शहर में एक संगीत संध्या
आयोजित करवा देते? उनका जवाब करीब चार दशक बाद भी मेरे मन पर ज्यों का त्यों अंकित
है. वे बोले, “अग्रवाल साहब, संगीत का शौक तो आपको और मुझे है. उसके लिए हमें
दूसरों पर बोझ क्यों बनना चाहिए? जब मन होगा, अहमदाबाद पास ही है, जाकर किसी को
सुन आएंगे!” पता नहीं वे मित्र अब कहां हैं, और कैसे हैं! लेकिन उनकी बात कल से
दिमाग में उमड़ घुमड़ रही है.
सोच रहा हूं कि हमारी जो भी रुचियां हों,
चाहे वो साहित्य की हों, संगीत की हों, या किसी और विधा की हों, आखिर क्यों
हमें किसी और की तरफ ताकना चाहिए कि वो दान करेगा और हम लाभान्वित होंगे! वो दान
करना चाहें, ज़रूर करें, लेकिन हम उनके दान के आकांक्षी क्यों हों? लेकिन हकीकत तो
यही है. मेरा ज्यादा लगाव जिस साहित्य की दुनिया से है उसमें मैं देखता हूं कि हम
लोग अपने प्रिय रचनाकार की किताब तक खरीदकर नहीं पढ़ना चाहते! हमारी आकांक्षा यही
होती है कि लेखक खुद हमें अपनी किताब भेंट करे तो हम पढ़ें! यह स्थिति हिन्दी समाज
में अधिक है. यही वजह है कि आज किताब का संस्करण तीन सौ प्रतियों तक सिमट आया है. अनायास मुझे यह बात याद आ रही है
कि एक बार जब किसी ने बहुत उत्साह पूर्वक कहा कि वो हिन्दी के लिए अपनी जान भी दे सकता है, तो
रामधारी सिंह दिनकर ने बहुत गम्भीरता से कहा था कि हिन्दी को आपकी जान की ज़रूरत नहीं है, आप तो बस थोड़े-से
पैसे खर्च दिया करें हिन्दी की किताबों के लिए! आज भी अगर हम इस बात को याद कर लें
तो हालात बदलते देर नहीं लगेगी.
और इसीसे मन भटकते-भटकते कहीं और निकल
जाता है! हमारे पास अपने हर कृत्य के लिए बहुत सारे तर्क होते हैं. अपना पैसा खर्च
न करने के लिए, अपना समय न देने के लिए, नियम-कानून-व्यवस्था का निर्वहन न करने के
लिए... क्या हम इन तर्कों के इस्तेमाल में थोड़ी कृपणता नहीं बरत सकते?
कृपणता
हमेशा ही निन्दनीय नहीं होती है!
•••
लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 09 सितम्बर, 2014 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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