आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय के संकट का पटाक्षेप
हो गया. चार साल का स्नातक पाठ्यक्रम जिसे पिछले बरस यू जी सी का अनुमोदन मिला था,
इस साल उसी यू जी सी के दबाव से फिर से तीन साल का कर दिया गया. शिक्षा की दुनिया में, और विशेष रूप से उच्च
शिक्षा की दुनिया में ऐसे संकट आते और जाते रहते हैं. कहना अनावश्यक है कि इनके
मूल में जो वजहें होती हैं वे सिर्फ अकादमिक ही नहीं होती हैं. दिल्ली
विश्वविद्यालय के इस संकट की ख़बरें पढ़ते हुए मुझे उस संकट की बार-बार याद आती रही
जिसका एक छोटा-सा किरदार बनने का मौका मेरी ज़िन्दगी में भी आया था. हमारे पाठक
जानते हैं कि माननीय उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार विद्यार्थियों के लिए कक्षाओं
में पिचहत्तर प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य है. प्रावधान यह है कि अगर कोई विद्यार्थी
न्यूनतम उपस्थिति की यह शर्त पूरी नहीं कर पाता है तो उसे नियमित की बजाय बतौर नॉन
कॉलेजिएट छात्र परीक्षा देनी होती है. यहीं यह भी बताता चलूं कि नॉन कॉलेजिएट की
मार्केट वैल्यू थोड़ी कम होती है. अब एक बात कान में कह दूं? बावज़ूद इस प्रावधान
के, साल के अंत में कुछेक अपवादों को छोड़कर ज़्यादातर शिक्षण संस्थाओं में ज़्यादातर
विद्यार्थियों की हाज़िरी पूरी बताकर रस्म अदाई कर ली जाती है. अगर मेरी बात पर
विश्वास न हो यह पड़ताल कर लें कि पिछले बरसों में कितने विद्यार्थियों को कॉलेजिएट से नॉन कॉलेजिएट
किया गया है. और फिर एक नज़र किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज की कुछ कक्षाओं पर भी डाल लें. आप खुद जान
लेंगे. कहने का आशय यह कि लीपापोती का खुला खेल फर्रुखाबादी चलता रहता है. लेकिन
कभी-कभी कोई बन्दा जब इस ठहरे पानी में कंकड़ फेंक देता है तो हंगामा बरपा हो जाता
है.
ऐसा ही उस बरस हुआ था. प्रांत के एक
अग्रणी कॉलेज के प्राचार्य ने उपस्थिति के इस प्रावधान को ईमानदारी से लागू कर
दिया. उनके कॉलेज के एल-एल. बी. के बहुत सारे
विद्यार्थी नॉन कॉलेजिएट घोषित कर दिए गए. और फिर तो जो होना था वही हुआ. न सिर्फ
कॉलेज में, शहर में भी हंगामा हो गया. कॉलेज बन्द, शहर बंद. हर ज़ोर जुल्म की टक्कर
में हड़ताल हमारा नारा है! बात शहर से निकल कर राजधानी तक पहुंचनी ही थी. मैं उन
दिनों प्रांत के उच्च शिक्षा विभाग में एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक पद पर था, इसलिए
इस सारे प्रकरण से भली-भांति परिचित था. एक दिन मुझसे काफी बड़े एक अधिकारी जी ने
मुझे सचिवालय में तलब किया और लगभग आदेश दिया कि मैं उन प्राचार्य महोदय से फोन
करके कहूं कि वे अपना आदेश वापस ले लें. मैंने अपने उन उच्चाधिकारी जी से निवेदन
किया कि वे प्राचार्य तो माननीय उच्च न्यायालय के, राज्य सरकार के और विभाग के
आदेश की अनुपालना ही कर रहे हैं, अत: हम
उनसे इस तरह का कोई अनुरोध कैसे कर सकते हैं, लेकिन अफसर तो अफसर होता है.
कह दिया सो कह दिया. उन्होंने फिर से अपना आदेश दुहराया. तब मैंने उनसे विनम्र
दृढ़ता से कहा कि मैं उन प्राचार्य जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और उनके
स्वभाव से वाक़िफ होने के नाते कम से कम मैं तो उनसे ऐसा कोई अनुरोध नहीं कर सकता.
स्वभावत: मेरे उन उच्च अधिकारी जी को मेरा यह जवाब रुचा नहीं, लेकिन मज़बूरी उन की
ही थी. वे मुझसे जो चाह रहे थे, उसकी असंगतता भी उन्हें मालूम थी. मैं उनके पास से
अपने दफ़्तर चला आया. लेकिन जो कुछ घटित हो
रहा था, अपने पद की वजह से उससे अपरिचित तो मैं नहीं था.
कैसी अजीब स्थिति थी! माननीय उच्च न्यायालय का आदेश, और उसी की
अनुपालना में राज्य सरकार का आदेश! ज़्यादातर
लोग उस आदेश की शालीन अनदेखी कर काम चला लें, और सब ज़िन्दा मक्खी निगलते रहें. सब
तरफ़ अमन-चैन बना रहे. लेकिन कोई एक बन्दा, वो उस आदेश का बाकायदा पालन कर ले तो
सरकार और विभाग ही उस पर यह दबाव बनाने लगे कि वो उस आदेश को वापस ले ले! उसकी
मानसिक व्यथा की कल्पना करें कि अपना काम ईमानदारी से करने का पुरस्कार उसे यह
दिया जाए कि उसे अपना वाज़िब आदेश वापस लेने की अपमानजनक स्थिति में डाल दिया
जाए! लेकिन होता यही है. दिल्ली का प्रकरण
तो चर्चा में आ गया, बाकी सब चुपचाप हो जाता है! यहां इस विस्तार में जाने का कोई
अर्थ नहीं होगा कि हमारे प्रांत के उस प्रकरण का निस्तारण कैसे हुआ! इतना बता देना
काफी होगा कि जिन विद्यार्थियों को नॉन कॉलेजिएट किया गया था, उन सबने नियमित
परीक्षार्थी के रूप में ही परीक्षा दी. सरकार तो सर्व शक्तिमान होती है ना!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार, 01 जुलाई, 2014 को नॉन कॉलेजिएट ने दी नियमित छात्रों के रूप में परीक्षा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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