शादियों का सीज़न है.
लोग आपस में बातें करते हैं तो हरेक की यही कोशिश होती है कि कैसे खुद को दूसरों
से सवाया सिद्ध किया जाए! एक कहता है कि यार, मेरे
पास पंद्रह शादियों के निमंत्रण हैं, क्या करूं, कैसे सब में जाऊं, तो दूसरा नहले पर
दहला मारता हुआ कहता है कि बस, पंद्रह ही? मेरे पास तो पूरे बत्तीस निमंत्रण पत्र पड़े हैं! और इन दोनों की बातें
सुनते हुए मैं सोचता हूं कि मैं बड़ा खुशनसीब हूं कि मेरे पास मात्र एक निमंत्रण है
और मैं उस शादी का भरपूर लुत्फ ले रहा हूं.
वैसे
शादियों की दुनिया में काफी सारे बदलाव हुए हैं. ख़ास बात तो यह कि पहले जो शुद्ध
पारिवारिक उत्सव हुआ करता था वो अब एक जन सम्पर्क गतिविधि में रूपांतरित हो चुका
है. अब शादी में अपने परिवार की खुशी अपने निकट के लोगों से बांटने की बजाय यह दर्शाने
की भावना अधिक आ गई है कि आप कितने साधन
सम्पन्न हैं और आपका सामाजिक घेरा कितना बड़ा है. मुझे नहीं लगता कि किसी भी शादी
में आए हज़ार दो हज़ार पांच हज़ार लोगों को बेटे/बेटी के मां-बाप या खुद वर-वधू
व्यक्तिश: जानते होंगे. और यही बात उन अतिथियों की तरफ से भी कही जा सकती है.
शादी
के पहले वाले विशुद्ध पारिवारिक आयोजनों को भी शादी जितना ही भव्य बनाया जा रहा है
और सज्जा, आवभगत, जलपान,
भोजन आदि पर खर्च बढ़ाने के
अजीबो-गरीब तरीके तलाश किए जा रहे हैं. हाल ही में एक सेलेब्रिटी से मुलाक़ात हुई
जो किसी शादी में पंद्रह मिनिट की अपनी उपस्थिति के लिए मायानगरी से उड़कर आए थे.
एक मोटे अंदाज़ के अनुसार उनकी पंद्रह मिनिट की उपस्थिति का व्यय चार लाख था. और उस शादी में उन जैसे तीन-चार
सेलेब्रिटी बुलवाए गए थे. कहना अनावश्यक है कि जिस परिवार में शादी थी उससे उनका
कोई लेना-देना नहीं था. पिछले दिनों हमने अखबारों में पढ़ा ही
है कि लोग अपनी शादियों की शोभा बढ़ाने के लिए किन-किन को और कहां-कहां से बुलाते
हैं!
और
शादी का खाना! कल तक जिन व्यंजनों से शादी की पहचान बनती थी वे कभी के रिटायर हो
चुके हैं और उनकी जगह ऐसे-ऐसे व्यंजन ले चुके हैं जो कल्पना से भी परे हैं.
व्यंजनों की गिनती करने बैठेंगे तो कैलक्युलेटर की ज़रूरत महसूस होगी. हम जैसे मध्यमवर्गीय लोग अक्सर
शादियों में यह शिकायत करते सुने जाते हैं कि अरे वहां तो इतनी चीज़ें थीं कि
उन्हें चखना भी मुमकिन नहीं था! मुझे लगता है कि बात इससे भी आगे बढ़ चुकी है. अब
चखना तो छोड़िये, देखना भी मुमकिन नहीं रह
गया है. अक्सर ही यह होता है कि एक कहता है कि अमुक व्यंजन बहुत उम्दा था, तो दूसरा कहता है कि अच्छा,
हमने तो देखा ही
नहीं. खाने का बाड़ा इतना बड़ा होता है कि कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव की वो बात याद आ
जाती है कि भैया इतना खर्चा किया तो कुछ रिक्शा भी चलवा दिये होते!
अब
जहां इतने व्यंजन होंगे वहां खाने की बर्बादी तो होनी ही है. ऐसा तो नहीं है कि
होस्ट को यह बात मालूम न हो! मुझे अक्सर अपने एक मित्र की बात याद आती है. उनके
साथ ऐसी ही एक भव्य शादी में जाना हुआ, तो देखता क्या हूं कि वे किसी स्टॉल पर जाते हैं, वहां
से एक प्लेट लेते हैं और फिर उसमें से ज़रा-सा चख कर उस प्लेट को डस्टबिन में
डालकर दूसरी स्टॉल की तरफ बढ़ जाते हैं. मुझसे खाने की यह बर्बादी सहन नहीं हुई तो
मैंने उन्हें टोक दिया. लेकिन उनपर मेरी बात का कोई असर नहीं हुआ. बड़े सहज और
लापरवाह भाव से बोले, “जिसने हमें बुलाया है, वो भी तो यही चाहता है! क्या उसे नहीं मालूम कि इतनी सारी चीज़ें हम खा
नहीं सकते हैं! ससुरे ने रखी ही इसलिए है कि हम चख लें और आगे बढ़ जाएं!” बात तो
ठीक थी.
और
इस सब के बीच असल शादी तो नेपथ्य में चली जाती है. ताम-झाम उसके लिए चाहे जितना
जुटाया जाए, उसमें दिलचस्पी किसी की
नहीं होती. शायद खुद वर-वधू की भी नहीं. पण्डितजी से आग्रह किया जाता है, और आग्रह भी क्या, उन्हें तो डांट कर कहा जाता है कि
जल्दी से यह सब निबटा दो.
और
यह सारा तमाशा हमारी आंखों के सामने हो रहा है. हो क्या रहा है, हम खुद इसमें शामिल हैं! मौका मिलता है तो हम भी यही सब करते हैं. अपने
साधनों की सीमितता की वजह से कर नहीं पाते हैं तो करने वालों की तरफ़ हसरत भरी
निगाहों से ताकते हैं और सोचते हैं कि काश! हम
भी वैसा ही कर पाते!
यारों, कभी तो रुक कर सोचो कि हम किस तरफ़ जा रहे
हैं? इस दौड़ का अंत
कहां होगा? क्या शादियों की पारिवारिक आत्मीयता वापस नहीं लौटनी
चाहिए?
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 25 फरवरी, 2014 को आखिर इस दौड़ का अंत क्या होगा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
4 comments:
मुझे लगता है कि बात इससे भी आगे बढ़ चुकी है. अब चखना तो छोड़िये, देखना भी मुमकिन नहीं रह गया है.
आपका कहना सही है. कल ही एक शादी में गया था. स्टार्टर स्टाल में घुसा तो चार पांच चीज चखने में ही पेट भर गया और मुख्य भोजन (मेन कोर्स) की तरफ तो गया ही नहीं - या कि प्रयास करने पर भी जा नहीं पाया - पेट जो भरा था!
सचमुच...आप एक बहुत बड़े भयानक कड़वे सच की ओर इशारा कर रहे हैं अग्रवाल जी... बहुत ही बुरा हाल है...अपने राजस्थान में जोधपुर का उम्मीद पैलेस होटल तो सेलेब्रेटी का मैरिज, सालगिरह उत्सव मनाने गढ़ बन गया है जैसे... बात निमंत्रण पत्र तक ही नहीं है आजकल तो निमंत्रण पत्रों के साथ भी उपहार के डिब्बे आने लगे हैं... विडंबना देखिए आत्मीयता की जगह सगुन के लिफाफों ने ले ली है
भारतीय शादियों में खाने की भारी बर्बादी होती है, खासकरके नए ज़माने की आधुनिक टर्म शादी में l एक आत्मीय अथिति के पास क्या-क्या विकल्प होते है, सिवाए इसके कि वह दो रोटिय उठा ले और एक सब्जी के साथ खा कर चल दे l क्योंकि, भारी भीड़ के बीच उसे प्लेट उठा कर युद्ध करते हुवे खाना मंजूर नहीं l यह शादी उन लोगों के लिए ठीक है, जो वर-वधु को जानते तक नहीं, बस नए पकवानों का लुफ्त उठा कर चल देते है l रही बात पारिवारिक आत्मीयता की बात, वह तो एकल परिवार के बनने से कब की समाप्त हो गयी है l
जहाँ प्लेट की गिनती से भुगतान किया जाता है , वहाँ इस तरह प्लेट लेने से खाने और पैसे दोनों की बर्बादी होती है।
जब सम्बन्धों का आधार अर्थ ही होता जा रहा है तो आत्मीयता होगी मुश्किल ही!
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