Thursday, September 23, 2010

इधर की कविताओं को लेकर टिप्पणी जैसा कुछ !


इंटरनेट पर अपनी एक टिप्पणी में अमरीका में रह रहे मेरे मित्र श्री अनूप भार्गव ने  हिंदी  कवि सम्मेलनों की स्तरहीनता पर अपना क्षोभ व्यक्त किया है. उन्होंने महाकवि निराला के एक अति प्रसिद्ध कथन, गिर कर कोई चीज़ मत उठाओ, चाहे वह कविता ही क्यों न हो’ को भी स्मरण किया है.  उनकी बात का समर्थन जाने माने कोशकार श्री अरविंद कुमार जी ने भी किया है और इस बात की तरफ भी इशारा किया है कि कवि सम्मेलनों के स्तर में गिरावट की शुरुआत कब से हुई. 

इस बात से कोई असहमति हो ही नहीं सकती कि आज कवि सम्मेलन फूहड़ता के पर्याय बन चुके हैं. वहां फूहड़ हास्य होता है, चुटकुलेबाजी होती है, लटके-झटके होते हैं, गायकी होती है, अदायगी होती है, नाटक  होता है, एक दूसरे की टांग  खिंचाई होती है, नूरा कुश्ती होती है, अगर कोई महिला भी मंच पर हो (जो कि होती ही है) तो उसे लेकर अशालीन टिप्पणियां  होती हैं.  और भी बहुत कुछ होता है. नहीं होती है तो बस, कविता नहीं होती है. और जो लोग यह सब कुकर्म करते हैं, उन्हें इसके लिए काफी अच्छा पैसा मिलता है. ज़ाहिर है यह पैसा जनता  देती है. कभी-कभार सरकार भी देती है. खास तौर पर हिंदी सप्ताह या पखवाड़े  के दौरान. हमारे ये कवि सम्मेलनी परफॉर्मर गिर कर काफी कुछ उठाते हैं. पैसा भी, नाम भी, यश भी, और यदा-कदा सरकार भी इन्हें नवाज़ देती है–संस्थानों के शीर्ष पर आसीन करके, जैसे कि ऐसे ही एक मंचीय विदूषक को देश की राजधानी में नवाज़ा गया. अब ऐसा करते–करते अगर कविता गिरती भी है तो गिरे. तथाकथित कवि जी का स्तर तो उठ रहा है. 

अनूप जी और अरविंद जी की चिंता  बहुत वाज़िब है कि यह सब कविता के नाम पर हो रहा है. लेकिन मेरी चिंता यहीं खत्म नहीं हो रही है. बल्कि यहीं से आगे बढ़ रही है. आज कवि सम्मेलन में  कविता नहीं रह गई है, ठीक बात है. लेकिन, क्या हमारी पत्र पत्रिकाओं में  कविता के नाम पर जो छप रहा है, उसमें से अधिकांश  को  कविता कहा जाना ठीक होगा? मैं जानता हूं कि मेरा यह सवाल अति सामान्यीकरण का शिकार है.  वहां काफी कुछ अच्छा भी छप रहा है. लेकिन, जो भी अच्छा छप रहा है क्या वह भूसे के ढेर  में खोया-सा नहीं लगता आपको? और चलिये यह भी मान लेते हैं कि उत्कृष्ट  और सामान्य के बीच  असंतुलन तो रहेगा ही. फिर भी. 

आज हिंदी में सबसे ज्यादा कविताएं ही लिखी जाती हैं. लिखने की शुरुआत करने वाले कविता से ही श्रीगणेश करते हैं. कुछ दिलजलों का कहना है कि ऐसा इसलिए होता  है कि कविता लिखना अपेक्षाकृत आसान है. मुझे नहीं पता, क्योंकि मैंने तो कभी लिखी नहीं. लेकिन हां, इधर पत्र-पत्रिकाओं में छपी ज़्यादातर कविताओं को देखता हूं तो दिलजलों की इस बात से असहमत होने का भी मन नहीं करता. उदाहरण देने की कोई ज़रूरत नहीं है. आप किसी भी  पत्रिका के पन्ने पलट लीजिए. एक ढूंढो, हज़ार मिल जायेंगे. आज कविता की दुनिया में कुछ ऐसी अराजकता है कि आप चाहे जो लिख दीजिए, और कह दीजिए कि यह कविता है. किसी माई के लाल में यह दम नहीं है कि कहे, राजा नंगा है. पिछले दिनों, मैंने कुछ ऐसा ही करने का दुस्साहस किया. हिंदी के एक प्रतिष्ठित (कहूं कि एकमात्र) साहित्यिक रुझान वाले समाचार पत्र के रविवारीय परिशिष्ट में छपी एक जाने-माने और समादृत कवि की तथाकथित कविता को स्कैन किया (हां, उनका नाम मैंने हटा दिया) और उसे फेसबुक पर पोस्ट करके पूछा कि क्या इसे कविता कहा जा सकता है? मेरा आशय  कवि की अवमानना करना क़तई नहीं था. इसीलिए मैंने उनका नाम हटा दिया था. मुझे वह रचना सीधे-सीधे एक वृत्तांत लग रही थी, कविता कहीं से भी नहीं लग रही थी, जबकि वह एक बहुत प्रतिष्ठित कवि की कलम से उपजी थी और एक ऐसे अखबार में छपी थी जिसके संपादक के साहित्य विवेक पर कोई  संदेह  नहीं किया  जा सकता. फेसबुक पर जो टिप्पणियां आईं, उनमें से अधिकांश  में उस रचना के कविता  होने को नकारा गया था.  दो-एक टिप्पणियों में ज़रूर उसे महान बताया  गया.  यह तो एक उदाहरण है. और इस तरह की चीज़ें आये दिन छपती ही रहती हैं. 

आप किसी भी पत्रिका, साहित्यिक पत्रिका,  के पन्ने पलट लें. वहां  आप कविता  के नाम पर जो छपा देखते हैं, क्या वह वाकई कविता कहने योग्य होता है? क्या कविता करना इतना आसान होता है कि उठाई कलम और लिख दी! कोई तैयारी नहीं. कोई अभ्यास नहीं. कुछ भी नहीं. लेकिन एक छद्म, एक पाखण्ड  चल रहा है. मैं तेरी तारीफ करूं, तू मेरी तारीफ कर. कविताओं की किताब छप जाती है, उसका लोकार्पण हो जाता है, कसीदे पढ़ दिये जाते हैं, दो-चार समीक्षाएं छप जाती हैं जिनमें उस किताब को न भूतो न भविष्यति बताया गया होता है, और बस. इस सबके पीछे जो प्रहसन घटित होता है, क्या उसे बताने की ज़रूरत है? मैं कुछ पंक्तियां लिखता हूं, उन्हें इकट्ठा करके, अपने पैसों से एक किताब छपवाता हूं. फिर अपने किसी मित्र से कहता हूं कि वह अपनी संस्था के बैनर तले मेरी किताब का लोकार्पण  समारोह आयोजित कर दे. सारा खर्चा  मैं वहन करूंगा, यह कहना अनावश्यक है. फिर मैं ही अपने कुछ मित्रों  से कहता हूं कि उन्हें मेरी किताब पर पत्रवाचन करना है, या वक्तव्य देना है. या तो मैं ऐसा उनके लिए पहले कर चुका हूं, या भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर कर दूंगा. उन मित्रों के पास कविता को लेकर जितनी भी अच्छी बातें हैं वे उन्हें मेरी  तथाकथित कविता पर लाद देते हैं. अगर आप उन वक्तव्यों  को सुनें तो आपको लगेगा कि न कालिदास कुछ थे, न मुक्तिबोध, न निराला. सब दो कौड़ी के थे. असल कवि तो यही है. जैसे-तैसे इस गोष्ठी की रपट भी कहीं न कहीं छप ही जाती है. जैसे-तैसे इसलिए कि आजकल समाचार पत्रों में साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों के लिए जगह ज़रा कम ही होती है.  और इसके बाद, जैसे गोष्ठी में वक्तव्य दिलवाये गए थे, वैसे ही समीक्षा भी लिखवा ली जाती है. बेचारे संपादक को भी तो अपनी पत्रिका के समीक्षा खण्ड में दो-एक किताबों की समीक्षा छापनी होती है ना.  अगर आप ही उन्हें किताब और समीक्षा दोनों उपलब्ध करा दें तो फिर नेकी और पूछ-पूछ.  और समीक्षा जब फरमाइश पर ही लिखी जानी है तो फिर उसमें वचनों की दरिद्रता क्यों? जितनी तारीफ मुमकिन हो उतनी हो जाए. आप पढ लीजिए इधर छपने वाली ज्यादातर समीक्षाएं. उनमें समीक्षित कविता या  कविता संग्रह की वो-वो खूबियां आपको नज़र आएंगी कि आपको  लगेगा कि आप तो अब तक भाड़ ही झोंकते रहे थे. क्या खाक समझ है आपको कविता की! 

यह पाखण्ड यहीं खत्म नहीं होता. छोटे लोग पत्रिकाओं में कविता छपवा कर वाहवाही लूटते है, उनसे बड़े संकलन छपवा कर, और जो उनसे  भी बड़े हैं वे संपादक बन कर ऐसा करते हैं. अगर विश्वास न हो तो मैं बताता हूं.  कविता और तद्विषयक चिंतन की  एक पत्रिका  है. लघु पत्रिका. नाम लेना उचित नहीं होगा. संपादक बहुत वरिष्ठ और आदरणीय  कवि हैं. बल्कि थे. कोई ग़लतफहमी पैदा हो उससे पहले ही स्पष्ट  कर दूं कि  यह भूतकालिक प्रयोग उनके संपादक के लिए है, कवि के लिए नहीं. अब उन्होंने संपादन का यह दायित्व एक   अपेक्षाकृत युवा कवि आलोचक को सौंप दिया है. पहले भी, जब वे खुद संपादन करते थे, और अब भी, जब संपादन कोई अन्य कर रहा है, उस पत्रिका में छपने वाला हर समीक्षा लेख उन कवि जी की  प्रशस्ति के बिना पूरा नहीं होता.  जब भी किसी नए कवि की प्रशंसा की जाती है यह बताना ज़रूरी होता है कि वह उस परंपरा का कवि है जिस परंपरा के शीर्ष पर उस पत्रिका के संस्थापक कवि बिराजते हैं. लिहाज़ के लिए दो-तीन नाम साथ में और ले लिए जाते हैं.  ऐसा करने में (यानि आत्मप्रशंसा  में) जब खुद उन कवि जी को कोई संकोच नहीं होता था तो फिर जिन्हें उन्होंने संपादक बनाया है वे भला क्यों कोई संकोच बरतने लगे. आजकल उस पत्रिका में नए  कवियों के काव्यकर्म पर एक श्रंखला चल रही है. मज़ाल है कि कोई कवि उन वरिष्ठ कवि जी के आई एस आई ठप्पे के बिना निकल जाए. और यह सारा कारोबार एकतरफा हो, ऐसा भी नहीं है. आखिर बदला तो चुकाना ही होता है ना. तो वे संस्थापक  संपादक जी भी, जब भी मौका मिलता है, उन आलोचकों के नाम ले  लेते हैं जिन्होंने उनकी प्रशंसा  की है. न इन्हें और कवि नज़र आते हैं और न उन्हें और आलोचक. तुझे ठौर नहीं, मुझे और नहीं. एक बहुत मज़े की बात यह कि इस पत्रिका के वर्तमान संपादक जब इस पत्रिका से बाहर कुछ  लिखते हैं तो वे  महान कवियों की रेडीमेड सूची चस्पां करने वाली आचार संहिता से मुक्त होते हैं. मुझे न उन कवि जी की महानता में कोई संदेह है और न वर्तमान संपादक जी के संपादकीय विवेक में.  लेकिन मन में एक ही सवाल है. अगर वे कवि इतने ही  महान हैं तो सिर्फ अपनी ही पत्रिका में इतने महान क्यों हैं? और अगर उनकी पत्रिका के वर्तमान संपादक उन्हें इतना ही अपरिहार्य मानते हैं कि उनके नाम  के बिना कोई समीक्षा कर्म पूरा नहीं होता तो फिर ऐसा उस पत्रिका में छपने वाले लेखों में ही क्यों होता है? यह तो एक उदाहरण  है. ज़्यादातर पत्रिकाओं की हालत ऐसी ही है. हर पत्रिका में छपने की पहली और ज़रूरी शर्त उसके संपादक का यशोगान होता है. हर, यानि अधिकांश पत्रिकाओं में. तो कवि (और आलोचक भी) के रूप में प्रतिष्ठित होने का एक और तरीका यह है कि आप संपादक बन जाएं.

अब जब यह सब कारोबार चलता है तो फिर बेचारे पाठक की क्या गति होती है? लेखक तो इस तंत्र को समझ और तदनुसार समझौते कर अपना काम  चला लेता है. लेकिन पाठक? वह रचना पढ़ता है तो उसे दो कौड़ी की लगती है. समीक्षा पढ़ता है तो पाता है कि जो रचना उसने पढ़कर यों ही छोड़ दी थी वह तो ऐसी थी जैसी सदियों में कभी-कभार  ही लिखी  जाती है.  बेचारा  अपने अज्ञान पर दुखी होता  है.  हैरां हूं,  दिल को रोऊं, कि  पीटूं जिगर को मैं.  कभी-कभी उसे लगता है कि साहित्य कहां से कहां पहुंच गया है और मैं ही हूं कि पीछे छूट गया हूं. मेरी समझ में ही कोई कमी   जब राधेश्याम जी कह रहे हैं कि सीताराम जी की कविता महान है, तो फिर होगी ही. लेकिन जब उस बेचारे पाठक को यह पता चलता है कि राधेश्याम  जी तो हर उस कवि को महान घोषित करने के असाध्य रोग से ग्रस्त हैं जो उन्हें ऐसा करने का अवसर देता है, तो सोचिये कि उस बेचारे पाठक के दिल पर क्या बीतती होगी. क्या वह खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करता होगा? क्या यह अनुभूति उसे साहित्य से थोड़ा दूर नहीं कर देती होगी?

इतना सब लिखते हुए मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर मैं कविता किसे मानता हूं? आसान नहीं है इस सवाल का जवाब. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का प्रसिद्ध निबंध ‘कविता क्या है’  खूब पढ़ा है.  लेकिन रस, छंद, लय, अलंकार, लक्षणा, व्यंजना ये सब बीते ज़माने की चीज़ें हैं.  साहित्य का विद्यार्थी हूं तो इतना तो जानता ही हूं. काफी कुछ बदल चुका है. यह भी जानता हूं कि केवल छंद  से ही कविता नहीं हो जाती. रस भी उतना ज़रूरी नहीं है. छंद की मुक्ति और सपाट बयानी के बारे में भी थोड़ा-बहुत जानता हूं. अर्थ की लय के बारे में भी पढ़-सुन रखा है. बिंब, प्रतीक के बारे में भी जाना-सुना है....  साहित्य की सभी विधाओं के स्वरूप में बहुत बदलाव आया है. कविता को लेकर जो प्रचलित धारणाएं और मान्यताएं थीं वे एकदम बदल चुकी हैं. फिर भी, शायद सीधे-सीधे कहीं उंगली रख कर भले ही न कहा जा सके कि कविता यहां है, महसूस तो हो ही जाता है कि कविता यहां है, या नहीं है.  अगर ऐसा न होता तो हम कवि सम्मेलनों के कविता न होने को लेकर भी दुखी नहीं होते. दुख केवल फूहड़ता को लेकर ही नहीं है. जब हम छंदोबद्ध कविता को कविता मानने से मना करते हैं तब भी हमारे मन में कोई अवधारणा  तो कविता की होती  ही है.

परिदृश्य बहुत साफ नहीं है. कहां ईमानदारी है और कहां बे ईमानी, कहना बहुत मुश्क़िल है. लेकिन बातें साफ तो होनी ही चाहिये. लिहाज़ में प्रशंसा बहुत हो गई. अब खरी बातें भी की जानी चाहिए. अगर कहीं  अधकचरापन है, कविता नहीं है, तो उसे भी इंगित किया जाना  चाहिए.  कविता लिखने वालों और उनके पेशेवर सराहना करने वालों का जो गिरोह बन गया है, कविता को उससे बाहर निकाला  जाना बेहद ज़रूरी है. पत्र पत्रिकाओं में कविता के नाम पर जो भी ऊल जुलूल छप रहा है उस पर कोई तो नियंत्रण  हो. अगर आपको लगे कि आपने कविता लिखने में नई ज़मीन तोड़ी है, तो बताइये ना पाठक को  उसके बारे में. पाठक अगर ना समझ  है तो उसकी समझ को विकसित कीजिए. पाठक से संवाद कायम कीजिए. एक जीवंत रिश्ता बनाइये. अपनी कहिये, तो उसकी भी सुनिये. अगर समय रहते ऐसा न किया गया तो आज जो बात कवि सम्मेलनी कविता के लिए कही जा रही है, कल वही बात पत्रिकाओं और किताबों में   छपने वाली कविताओं के बारे में भी कही जाने लगेगी.
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अक्सर त्रैमासिक के अंक-13  (जुलाई-सितंबर, 2010) में प्रकाशित आलेख! 



13 comments:

गजेन्द्र सिंह said...

बहुत ही बढ़िया लगा लेख पढ़कर ......पर अभी पूरा नहीं पढ़ा है ...

(क्या अब भी जिन्न - भुत प्रेतों में विश्वास करते है ?)
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_23.html

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत अच्छा लेख है आपका...मैने खुद मंच पर कविता पढ़ी है। कविता का गिरता स्तर भी देखा है मगर मैं खुद का तमाशा नहीं बना पाई..मैं अब केवल हिंदी साहित्य समितियों (अगर उस शहर में हो जहां हम रहते हैं) में ही जाती हूं जहां वाकई साहित्य के पारखी लोग ही मिलते हैं। इतने अच्छे लेख के लिए बधाई...

अनूप भार्गव said...

मेरी बात को आगे बढाने और एक नया आयाम देने के लिये आभार । विषय वास्तव में चिन्ताजनक है , जहां एक ओर कवि सम्मेलन में आने वाले श्रोताओं की संख्या तो शायद बढ रही है, कवि सम्मेलनों का बजट बढ रहा है लेकिन कवि सम्मेलनों से कविता दूर होती जा रही है ।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

दरअसल आज का श्रोता साहित्य से दूर होता जा रहा है और केवल हंसने-हसाने के लिए इन सम्मेलनों में जाता है। वैसे, कवि भी इसी मानसिकता से भाग लेने आते हैं। जब कोई संजीदा कवि अपनी स्तरॊय कविता सुनाता है तो या तो हूट किया जाता है या श्रोता उठ कर चले जाते हैं। साहित्य और कवि सम्मेलन दो अलग भाग हो गए हैं॥

Rahul Singh said...

प्रतिदिन एकाधिक नये महाकवि पहचाने जा रहे हैं. अगर किसीने टैलेंट सर्च का बीड़ा उठाया है तो निरंक जानकारी देकर अपनी कार्य क्षमता पर प्रश्‍नचिह्न तो नहीं खड़ा कराना चाहेगा. एकाध तो रोज ही खोज निकालेगा.
'एक-दिवसीय इतिहास बन रहा है और अखबार क्‍या तवारीख भी रद्दी में बिक रहा है'
(मेरे शुभचिंतकों, कृपा कर मुझे बचाना, इसे कविता न मान लेना)

Rahul Singh said...
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Rahul Singh said...

आपसे सम्‍पर्क का कोई रास्‍ता नहीं सूझा, आगे दिया लिंक www.indradhanushindia.org आपके पेज से कॉपी किया है, इस पर कुछ अनपेक्षित सा खुल रहा है. सम्‍पर्क का प्रयास इसलिए कि akaltara.blogspot.com पर 'देथा की सपनप्रिया का रसास्‍वाद' पोस्‍ट लगाई है, आपकी रुचि का हो सकता है.

Murli Dhar Tilwani said...

Agrwal sahab pura lekh bade man se padhaek bat achhi lagi apne smasya ke sath samadhan bhi batya ke pathak se sanvad kaym kare kavi.bahut accha laga. badgai.

Ashok Kumar pandey said...

मुझे लगता है कि आप बाक़ायदा नाम लेकर और कविता पंक्तियां तथा शीर्षक देकर बात करते तो ज़्यादा बेहतर होता…ऐसे सरलीकरण अंततः एक ग़ैरज़िम्मेदार स्टेटमेन्ट ही होते हैं और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता…

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...
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डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

भाई अशोक पाण्डेय जी की प्रतिक्रिया पर मैं मात्र इतना ही कहना चाहता हूं कि मेरा आशय कुछ प्रवृत्तियों पर इंगित करने का था, इसलिए जान-बूझकर नाम नहीं लिए. कविता पंक्तियां उद्धृत करने का परिणाम भी वही होता, जो नाम लेने का होता. नाम लेने वगैरह का एक खतरा यह भी था कि बात प्रवृत्ति से हटकर व्यक्ति पर टिक जाती, जबकि मैं एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में ही बात कहना चाहता था.
और जहां तक किसी को फर्क़ पड़ने का सवाल है, नाम ले भी लेता तो किसी को क्या फर्क़ पड़ना था?

Murli Dhar Tilwani said...

agarwal saheb aap ki chinta vajib hai par aap jaise sahity ke sajg prahri ke hote pathak bhatkne se bach jayge, ha par tathkathit kaviyon ko nirala ji bat samjh ate ate ek umr lag jayegi.

KK Mishra of Manhan said...

वाह खालिस समालोचना...