Wednesday, November 13, 2024

अजीबोगरीब बूढ़ा

 जब ऑस्ट्रेलिया के एक छोटे कस्बे के एक नर्सिंग होम के बूढ़ों के वार्ड में एक वृद्ध ने आखिरी सांस ली तो यह मान लिया गया कि उसके पास कीमती कुछ भी नहीं है.

बाद में, जब नर्सें उसके बचे खुचे  सामान को खांगाल रही थीं तो उन्हें यह कविता मिली. कविता की विषय वस्तु और शैली से वे इतनी ज़्यादा प्रभावित हुईं कि उन्होंने इसकी फोटो प्रतियां करके अस्पताल की सारी नर्सों को भेजी.

उनमें से एक नर्स यह कविता मेलबोर्न ले गई. उस बूढ़े की अगली पीढ़ी के नाम यह वसीयत अब तक वहां की पत्रिकाओं के क्रिसमस विशेषांकों में और मानसिक स्वास्थ्य विषयक पत्रिकाओं में कई दफा प्रकाशित हो चुकी है. इस कविता पर एक स्लाइड प्रस्तुति भी तैयार की जा चुकी है.

और इस तरह यह बूढ़ा, जिसके पास दुनिया को देने के लिए कुछ भी नहीं था, इण्टरनेट पर बहु पठित इस इस अनाम कविता के रचियता  के रूप में जाना जा रहा है. 

 

 

क्या देख रही हो नर्स?  क्या देख रही हो?

जब मेरी तरफ़ देखती हो तो क्या सोचती हो तुम?

एक अजीबोगरीब बूढ़ा ...कोई ख़ास अक्लमंद भी नहीं,

जो नहीं जानता कि क्या करे और क्या न करे...कहीं दूर ताकता.

जो बिखेर  देता है खाने-पीने की चीज़ें और नहीं देता है कोई जवाब

जब तुम ज़ोर से कहती  हो उसे...’कोशिश  तो करके देखो!’

और लगता है जैसे उसका ध्यान ही नहीं जाता कि क्या कर रही  हो तुम.

हमेशा ही खोता रहता है वो अपनी चीज़ें – कभी मोजा तो कभी जूता.

वो जो कभी तुम्हें रोकता है और कभी नहीं,  करने देता है तुम्हें अपनी मनमानी-  

उसे नहलाने में या खिलाने  में. कितना लम्बा तो होता है उसका दिन?

यही तो सोच रही  हो ना तुम! यही तो नज़र आता है ना तुम्हें!

अपनी आंखें खोलो नर्स!  नहीं देख रही हो तुम मुझे.

यहां शांत बैठा मैं,

तुम्हारी आवाज़ पर हिलता-डुलता और तुम्हारे इशारों  पर खाता-पीता,

 

बताता हूं तुम्हें कि कौन हूं मैं.

मैं हूं दस साल का एक बच्चा.. मेरे भी हैं मां-बाप,

भाई-बहन – जो करते हैं प्यार एक दूसरे से.

सोलह साल का एक लड़का  - लगे हैं पंख जिसके पैरों में

देखते हुए ख़्वाब कि जल्दी ही मिलेगा उसे उसका प्रेम

और फिर  बीस में आकर वो बना दूल्हा.......मेरा दिल धड़क रहा है बहुत ज़ोर से.

याद आ रही हैं वो कसमें जो खाई थी मैंने.

और अब मैं हूं पच्चीस का और है मेरा भी एक बेटा

जो चाहता है कि मैं उसकी उंगली पकड़ कर दिखाऊं उसे राह और दूं एक सुरक्षित सुखी घर.

मैं हुआ अब तीस का और तेज़ी  से बड़ा हुआ मेरा बेटा,   

बन्धे हुए रिश्तों के मज़बूत बन्धन में.

मैं हुआ चालीस का और और मेरे बच्चे बड़े होकर  चले गए हैं मुझसे दूर

लेकिन पास है मेरी पत्नी... करती फिक्र इस बात की कि न छाए उदासी मुझ पर.

पचास में एक बार फिर बच्चे खेल रहे हैं मेरे इर्द गिर्द

फिर हम घिरे हैं बच्चों से, अपने प्यारे बच्चों से.

अंधियारे दिन आए हैं... छोड़ गई है  मेरी पत्नी.

मैं ताकता हूं भविष्य को और थरथराता हूं डर से. 

मेरे बच्चे पाल पोस  रहे हैं अपने छोटे बच्चों को

और मुझे याद आ रहे हैं वे बरस और वो प्यार जो मैंने था जिया.

अब हो गया हूं मैं बूढ़ा और निर्दयी है प्रकृति!

बेवक़ूफी है उड़ाना मज़ाक बुढ़ापे का.

खण्ड खण्ड होती है देह और अलविदा कहते हैं लावण्य़ और ऊर्जा.

पहले जहां था दिल अब वहां है एक पत्थर.

लेकिन उस पुराने खण्डहर में अब भी रहता है एक युवक

और अक्सर मेरा टूटा-फूटा दिल खिल उठता है

याद करके वो खुशियां.........और वो ग़म.

मैं फिर से कर रह हूं मुहब्बत और फिर से जी रहा हूं ज़िन्दगी.

बीत गई ज़िन्दगी बहुत जल्दी....

मान लिया है मैंने इस सच को कि कुछ भी तो नहीं होता है अजर अमर.

तो खोलो अपनी आंखें  लोगों...खोलो  और देखो.

नहीं हूं मैं एक अजीबोगरीब बूढ़ा.

ध्यान से देखो.... यह हूं मैं!  

 

अगली दफ़ा जब भी किसी बूढ़े से आपकी मुलाक़ात हो, हो सकता है कि उसके बूढ़े शरीर के भीतर छिपे बैठे युवा मन  को आप अनदेखा कर जाएं. तब  इस कविता को  ज़रूर याद करें. एक दिन हम सबका भी यही हश्र  होना है!

 

(मूल कविता: फिलिस मैककॉर्माक, रूपांतरण – डेव ग्रिफिथ).

हिन्दी अनुवाद: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 

Sunday, May 19, 2024

कितने कमरे!


 जब मुझसे यह आग्रह किया गया कि मैं अपने पढ़ने लिखने के कमरे में बारे में कुछ लिखूं तो मैं सोच में पड़ गया. लगभग 35 साल की सरकारी नौकरी में अनेक घर बदले और स्वाभाविक ही है कि घर बदलने के साथ पढ़ने-लिखने के कमरे भी बदले. बेशक अब लगभग दो दशक से अपने घर में हूं और मानता हूं कि स्थायी रूप से हूं, लेकिन इससे पहले तो थोड़े-थोड़े अंतराल पर कमरे बदलते ही रहे हैं, तो मुझे किस कमरे की बात करनी चाहिए, या क्या सारे कमरों की बातें करनी चाहिएं? लेकिन इन सब कमरों की बात करूं भी तो शुरुआत तो वहीं से करनी होगी, जहां से वाकई पढ़ने-लिखने की शुरुआत हुई! और रोचक बात यह कि जहां से यह शुरुआत हुई वहां कमरा जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं.

 

मुझे बात  को थोड़ा और खोल कर कहना चाहिए. 


मेरा  जन्म और किशोरावस्था बल्कि युवावस्था के आरम्भ तक का सारा जीवन उदयपुर में बीता है. मेरा संबंध एक व्यापारी परिवार से था अत: घर में पढ़ने-लिखने का कोई माहौल नहीं था. शहर के बीचों बीच एक तिमंज़िला मकान में मैं अपने मां-बाप के साथ रहता था. मैं उनकी एकमात्र जीवित संतान था. मकान किराए  का था और मुझे अब भी यह बात स्मरण है कि उसका किराया ` 35/- माहवार था. जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था तब लम्बी बीमारी के बाद मेरे पिता का निधन हो गया. उसके बाद मां ने अपने कुछ ज़ेवर वगैरह बेच कर और कुछ कर्ज़ा लेकर उस घर को ग्यारह हज़ार रुपये में खरीदा - ताकि सर पर एक छत तो रहे. उस मकान की रजिस्ट्री मेरे नाम पर हुई और इस तरह अल्प वय में ही मैं उस मकान का विधिवत स्वामी बन गया. उस तिमंज़िला इमारत के भूतल पर हमारी दुकान थी, पहले तल पर दो कमरे और उनके सामने एक बरामदा था. इस तल  का कोई ख़ास उपयोग नहीं होता था. दूसरे तल पर फिर दो कमरे और एक बरामदा और आगे एक बालकनी थी. असल में यही हमारा लिविंग एरिया था. एक कमरा हमारा शयन कक्ष था, दूसरे कमरे में एक कोना मुझे मिला हुआ था जिसमें एक टेबल कुर्सी थी और दो आले जिनमें मेरी कुछ किताबें  रहती थीं. यह एक अंधेरा-सा कमरा था. कोई खिड़की या वेण्टीलेशन इसमें नहीं था. यहीं एक रेडियो भी हुआ करता था जिसे सुनते हुए मैं पढ़ाई जैसा कुछ करने की कोशिश  करता था. पुराने ज़माने का वाल्व वाला रेडियो था, जिसे मैं कभी बाहर बरामदे में रख कर सुनता, कभी छत पर ले जाता....इसी तल पर एक खुली-खुली सी बालकनी भी थी जिसमें खूब बड़े तीन झरोखे जैसे थे और जिनसे खूब प्रकाश मिलता था. वहां से नीचे  के बाज़ार की सारी हलचल नज़र आती थी.  इसी बालकनी का एक कोना लम्बे समय तक मेरा पढ़ाई का 'कमरा' रहा. यह चर्चा आगे चलकर करूंगा. मकान की तीसरी मंज़िल एक खुली छत थी और उसी छत पर एक टिन शेड वाला कमरा था जिसे मेरी  मां बतौर रसोई काम में लेती थी. वही हमारा डाइनिंग रूम भी था. तब खड़े होकर खाना बनाने का या डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाने का चलन नहीं हुआ था. तब तक स्टोव भी अधिक चलन में नहीं आए थे,  कोयले या लकड़ी जलाकर खाना बनाया जाता था और रसोई में ज़मीन  पर बैठकर ही खा लिया जाता था.

 

तो स्कूली शिक्षा के दौरान यही अंधेरा-सा कमरा मेरा पढ़ाई का कमरा भी रहा. इस कमरे में बड़ा पुराना एक पलंग रखा रहता था, घर के बिस्तर भी इसी   कमरे में जमा कर रखे जाते थे और रात को सोते समय उन्हें बिछा लिया जाता था. पलंग पर कोई बिस्तर बिछा नहीं रहता था. असल में वह ज़माना आज से अलहदा था. तब बेडरूम जैसी कोई परिकल्पना चलन में नहीं थी, कम से कम हम जैसों के यहां तो नहीं थी. मैं पढ़ाई में बस सामान्य-सा ही था, इसलिए ऐसी कोई ख़ास बात याद नहीं आ रही जिसका ज़िक्र करूं. हां, एक बात ज़रूर बताने काबिल है. उन दिनों मुझे एक अजीब शौक लगा था. शौक यह था कि बड़े लोगों को खासकर राजनेताओं को उनके जन्म दिन, निर्वाचन, पद ग्रहण आदि के अवसर पर बधाई के पत्र लिखा करता था. मैं पत्र लिख कर डाक में डालता और  कुछ दिनों बाद मेरे घर के पते पर 'भारत सरकार की सेवार्थवाला सर्विस स्टाम्प लगा लिफाफा आता, जिसमें वे बड़े लोग मेरे प्रति आभार व्यक्त करते. पत्र सामान्यत: टंकित होता लेकिन उस पर हस्ताक्षर वास्तविक होते. औरों की तो छोड़िये, प्रधानमंत्री के यहां से भी उनके हस्ताक्षर वाले पत्र आते. अलबत्ता राष्ट्रपति के यहां से जो पत्र आते उनमें उनके सचिव के हस्ताक्षर होते. उसी दौर में जब अमरीका में जॉन एफ कैनेडी राष्ट्रपति बने तो एक बधाई पत्र उन्हें भी भेज दिया  और उनके यहां से भी उनकी तस्वीर वाला धन्यवाद पत्र आया. कभी-कभार किसी फिल्मी कलाकार को भी ऐसा ही पत्र लिख देता और उनके यहां से उनके हस्ताक्षर वाले पत्र की बजाय उनका एक फोटो आता जिस पर उनके हस्ताक्षर होते. ऐसे कोई चार पांच सौ पत्रों का पुलिंदा मेरे पास था, जो बाद में कहीं इधर उधर हो गया. अब उनमें से एक भी पत्र मेरे पास नहीं है. लेकिन क्या तो वह ज़माना था जब नेतागण पत्रों के जवाब दिया करते थे, और क्या ज़माना था जब मुझ जैसा सामान्य स्कूली विद्यार्थी उन्हें पत्र लिखता था. क्या आज के विद्यार्थी भी ऐसा कोई शौक पालते हैं

 

जब मैं स्कूली शिक्षा पूरी करके  कॉलेज में आया तो कुछ ज़्यादा पढ़ाई की ज़रूरत होने लगी और वह अंधेरा-सा कमरा मुझे पढ़ाई के लिए अनुपयुक्त लगने लगा. तब मैंने उस बालकनी के एक कोने को अपना पढ़ाई का 'कमरा' बनाया. असल में वह कमरा था ही नहीं. लेकिन उस कोने में मैंने अपनी वही पुरानी टेबल कुर्सी लगा ली और वहीं बैठ कर बाज़ार की रौनक देखते हुए, बाज़ार की आवाज़ें सुनते हुए पढ़ाई करने लगा. वह सुरक्षा के ताम-झाम से बहुत पहले का समय था अत: अपनी उसी बालकनी से मैंने पण्डित जवाहर लाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी को भी गुज़रते हुए देखा है. असल में मेरा वह घर राजमहल को जाने वाली सड़क पर स्थित था और जो भी बड़ा व्यक्ति उदयपुर में आता वह राजमहल भी ज़रूर जाता. इसलिए मुझे इन महान शख्सियतों  को अपनी बालकनी से देखने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा.  बाद मैं जैसे-तैसे पैसों का जुगाड़ कर एक सस्ता-सा टेबल लैम्प भी खरीदकर भी मैंने उस टेबल पर रख लिया. इस बालकनी वाले तथाकथित कमरे में ही बैठकर मैंने अपनी बीए और एमए की पढ़ाई की. किताबें खरीदने की अपनी हैसियत थी नहीं, शहर की दो लाइब्रेरियों और अपने कॉलेज की लाइब्रेरी  और ख़ास तौर पर एमए की पढ़ाई के दिनों में अपने गुरुजन के घरों से जो किताबें लाता उन्हें कमरे में आलों में रखता और ज़रूरत के मुताबिक एक या दो किताबें टेबल पर रखकर उन्हें पढ़ता.  एमए की परीक्षा देने के बाद मैंने अपने एक ही गुरू जी को उनकी लगभग छह सात सौ किताबें लौटाई थीं. 

 

एमए पास करते ही 1967 में मुझे राजस्थान सरकार के कॉलेज शिक्षा विभाग में प्राध्यापक हिंदी की नौकरी मिल गई और मेरा गृह नगर मुझसे छूट  गया. लगभग 35 बरसों की नौकरी में मुझे कभी भी उदयपुर में पदस्थापित होने का अवसर नहीं मिला और संयोग कुछ ऐसा बना कि नौकरी से रिटायर होने के बाद भी मैं उदयपुर नहीं जाकर जयपुर में बस गया. तो उदयपुर का वह तथाकथित पढ़ाई का कमरा मुझसे छूट गया (बरसों बाद वह घर भी मैंने बेच दिया, और उसके कुछ बरस बाद उसके नए खरीददार ने उसे भूमिगत करवा कर नई तरह से बनवा लिया. और इस तरह मेरा वह कमरा सदा-सदा के लिए लुप्त हो गया! इति प्रथम कमरा कथा! 

 

नौकरी के शुरुआती बरसों में, जब तक मेरा विवाह नहीं हुआ, प्राय: एक कमरा लेकर रहा, अत: वही कमरा ड्राइंग रूम-बेडरूम स्टडी रूम सब कुछ रहा. भीनमाल और चित्तौड़गढ़ में कुल मिलाकर ऐसे तीन कमरे मेरा निवास स्थान बने. पहली बार अलग से पढ़ाई का कमरा मुझे मयस्सर हुआ चित्तौड़गढ़ में जहां मुझे एक बहुत बड़ा सरकारी बंगला अलॉट हुआ. वहां जगह खूब थी, सामान कम था. किताबें और भी कम. लेकिन नौकरी लग जाने से इतनी सुविधा हो गई थी कि हर माह एक दो किताबें खरीद लेता था. वहां किताबों कोई दुकान तो नहीं थी और न तब तक ई कॉमर्स  साइट्स चलन में आई थीं. मैंने वहां ज़्यादा किताबें रेल्वे स्टेशन के बुक स्टॉल से खरीदीं.  उन्हीं दिनो सीमोन द बुवा की द सेकण्ड सेक्स भी खरीदी, जो अब तक मेरे पास है. तो ये किताबें मेरे कमरे की शोभा बढ़ातीं. और हां, जब मैंने एमए पास किया और उसमें मुझे स्वर्ण पदक मिला तो उस समय के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की एक नीति की वजह से हमें स्वर्ण पदक की बजाय (शायद) छह सौ रुपये की किताबें दी गई थीं और उन किताबों में से हरेक पर इस आशय की एक चिप्पी लगी हुई थी कि स्वर्ण पदक के बदले यह किताब अमुक को दी गई है. अच्छी बात यह थी कि किताबों की सूची हमसे मांगी गई थी और मुझे अपनी मनचाही किताबें मिली थीं. वे किताबें भी मेरे कमरे में रहती थीं, और मेरे खूब काम भी आती थीं. इस तरह किताबें ही मेरा स्वर्ण पदक बनीं, और उनमें से अधिकांश अब भी मेरे पास हैं.  उस ज़माने में अमरीकी दूतावास भी बहुत सारी किताबें निशुल्क भेजा करता था. मैं जब जयपुर आता तो पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से रूसी किताबें भी ज़रूर खरीद कर ले जाता. तब तक वैचारिक रूप से मैं बहुत सजग नहीं था. उन किताबों को खरीदने का एक बड़ा कारण उनका सस्ता और आकर्षक होना भी हुआ करता था. 

 

अपनी नौकरी के प्रारम्भ से ही मेरे पास  जेके का एक पोर्टेबल टाइपराइटर था और मैंने अपनी पूरी नौकरी के साढ़े तीन दशकों में उसका भरपूर इस्तेमाल किया है. अपने लेख समीक्षा आदि तो मैं स्वयं उस पर टाइप करता ही था, व्यक्तिगत पत्र, यहां तक की पोस्टकार्ड भी उसी पर टाइप करके भेजता. असल में मुझे लिखने में सुरुचि का जुनून-सा रहा है. अच्छी स्टेशनरी पर सुरुचिपूर्वक लिखना-टाइप करना मुझे बहुत प्रिय रहा है और इस बात को लेकर कई दोस्तों ने मेरी सराहना भी की है. जहां-जहां भी रहा, यह टाइपराइटर मेरा लेखन-सहयोगी रहा. मेरे पास अपने लिखने-पढ़ने का बहुत समृद्ध कमरा कभी भी नहीं रहा, लेकिन ज़रूरी सुविधाएं हमेशा मेरे पास रही. एक टेबल, एक ठीक-ठाक  कुर्सी, एक टेबल लैम्प, टाइपराइटर, स्टेशनरी का खूब सारा सामान, बढ़िया कागज़, अच्छा लैटरहेड, बढ़िया लिफ़ाफे, पर्याप्त डाक टिकिट ये सब मेरे पास खूब रहे. एक बार मेरे एक मित्र ने जो दूसरे शहर में रहते थे, टिप्पणी की थी कि आपके पत्रों को देखकर लगता है कि आपकी राइटिंग टेबल खूब सजी-धजी और भरपूर होगी. 

 

अपनी नौकरी के दौरान मैं क्रमश: भीनमाल, चित्तौड़गढ़, सिरोही, कोटपूतली, आबू रोड और जालोर में रहा. ये सभी राजस्थान के छोटे कस्बे  हैं. भले ही मेरे पास स्वतंत्र लिखने-पढ़ने का कमरा इनमें से किसी भी जगह नहीं रहा, इतना अभाव भी नहीं रहा कि लिखने-पढ़ने में कोई असुविधा हो. सबसे ज़्यादा समय, लगभग 25 बरस मैंने सिरोही में बिताया और वहां मेरे पास मात्र दो कमरों का एक छोटा-सा किराए का घर था. उसमें से एक कमरे में मैंने अपनी लिखने-पढ़ने की टेबल लगा रखी थी. यह टेबल एक बड़ी खिड़की से सटी हुई थी अत: वहां स्वाभाविक उजाला रहता था.  टेबल के पास बांस की बनी एक पुस्तक रैक थी और जब किताबें उस रैक में नहीं समातीं तो उसी कमरे में लगी  एक अलमारी में रख देता. मेरे सिरोही कॉलेज की लाइब्रेरी बहुत बढ़िया थी और वहां के ज़िला पुस्तकालय- सारणेश्वर लाइब्रेरी से भी मुझे खूब किताबें मिल जाती थीं, अत: वहां पढ़ने का खूब बढ़िया मौका मुझे मिला. इस कमरे की चर्चा का समापन करते हुए दो-तीन छोटी-छोटी बातें और. एक तो यह कि यह कमरा एक्सलूसिवली मेरे पढ़ने लिखने का कमरा नहीं था. जब बाहर  पढ़ने चले गए बच्चे घर आते तो यह उनका शयन  कक्ष बन जाता, जब कोई मेहमान आता तो यह कमरा उनके  सोने-बैठने के काम आने लगता, जब किसी को औपचारिक रूप से खाना खिलाना होता तो इसी कमरे को डाइनिंग रूम की हैसियत बख़्श दी जाती और सबसे बड़ी बात यह कि जब बाहर से कोई लेखक सिरोही आता तो उसके सम्मान में छोटी मोटी गोष्ठी भी इसी कमरे में कर दी जाती.  यह इस कमरे का सौभाग्य रहा कि कम से कम राजस्थान के तो लगभग सारे ही नामी लेखकों की चरण धूलि यहां पड़ी. स्वयं प्रकाश, जिनसे मेरी बहुत गहरी दोस्ती रही, ने न जाने कितनी बार इस कमरे में  अपनी रचनाएं मेरे दोस्तों को सुनाईं! 

 

सिरोही के बाद मैं जिन भी जगहों पर रहा, ज़्यादा समय के लिए नहीं रहा. एक अपवाद आबू रोड है जहां मैं करीब दो बरस रहा और संयोग से मुझे बहुत सुंदर घर भी वहां मिल गया. वहां मेरे पास पढ़ने-लिखने का कमरा तो रहा, लेकिन क्योंकि तब तक मैं प्राचार्य बन गया था, पढ़ने-लिखने का समय मुझे कम मिलने लगा, इसलिए कमरा तो रहा, उसका अधिक उपयोग नहीं हुआ. प्राचार्य के रूप में मुझे जालोर में और उससे पहले सिरोही में खूब अच्छे सरकारी बंगले मिले, लेकिन दोनों जगहों पर भी मैं  अधिक समय नहीं रह सका, इसलिए उन बंगलों के पढ़ने-लिखने के कमरों की कोई खास स्मृतियां नहीं हैं. 

 

अपनी नौकरी के आखिरी चरण में जब मैं जयपुर आया तो यहां मुझे सरकारी ट्रांज़िट हॉस्टल में रहना पड़ा. वह एक छोटा-सा, काम चलाऊ आवास था. मैं अपना सामान भी सिरोही से लेकर नहीं आया था और मेरी नौकरी बहुत व्यस्तता वाली थी अत: यहां पढ़ने-लिखने का कोई ख़ास अवसर मुझे नहीं मिला. इसके बावज़ूद मैंने पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की एक किताब का अनुवाद इसी हॉस्टल में रहते हुए किया, और अब आश्चर्य होता है कि कैसे किया! सेवा निवृत्त होने के बाद हम इस हॉस्टल से सीधे अपने घर में आए और यहां मुझे बाकायदा एक पढ़ने का कमरा मयस्सर हुआ. घर हमारा ज़्यादा बड़ा नहीं है, लेकिन दो जन के लिए छोटा भी नहीं है.  एक कमरा बाकायदा मेरा अध्ययन कक्ष है जिसमें दो स्टील की अलमारियां किताबों से ठसाठस भरी हैं और बहुत सारी किताबें कमरे में इधर उधर रखी हैं. इसी कमरे से जुटा एक छोटा-सा स्टोर रूम है, उसमें भी मैं अपनी किताबें ठूंसता रहता हूं. जितनी  किताबें हैं उनकी तुलना में जगह कम है. किताबें हैं कि उनका कुनबा बढ़ता ही जाता है. दोस्तों से किताबें मिलती रहती हैं, समीक्षार्थ किताबें आती रहती हैं और हर बार यह संकल्प करने के बावज़ूद कि अब और किताबें नहीं खरीदूंगा हर माह चार पांच किताबें तो खरीद ही लेता हूं. ई कॉमर्स ने किताबें खरीदना बहुत आसान कर दिया है. उनके लिए जगह बनाने के लिए समय-समय पर किताबों की  छंटनी करके किसी  न किसी सार्वजनिक पुस्तकालय को भेंट करता रहता हूं. उम्र के इस मुकाम पर पहुंच कर बहुत ज़्यादा  किताबें इकट्ठी करने का भी मोह नहीं है. बल्कि कोशिश करता हूं कि उनकी छंटनी  होती रहे और केवल वे ही किताबें घर में रहें जिनका रहना बहुत ज़रूरी है. बहुत सारी किताबों को अलविदा इसलिए भी कह दिया है कि उनके ई संस्करण अब मेरे किण्डल पर मौज़ूद हैं. हज़ारों किताबों की पीडीएफ मेरे कम्प्यूटर में हैं. बल्कि उनके लिए एक अलग हार्ड डिस्क खरीद रखी है. एक अच्छी टेबल  और कुर्सी है, पुराने मैन्युअल टाइपराइटर को कभी का अलविदा कह चुका हूं. लिखने का सारा काम अपने कम्प्यूटर पर करता हूं. हालांकि चिट्ठियां अब बहुत कम लिखता हूं, स्टेशनरी का मेरा शौक बरकरार है. हां, इस टेबल पर मेरा साथ गूगल का एआई  आधारित उपकरण एको डॉट देता है जिस पर मैं पढ़ने लिखने के पूरे समय शास्त्रीय वाद्य संगीत चलाकर रखता हूं. असल में मुझे पढ़ते लिखते समय संगीत का साथ बहुत ज़रूरी लगता है. इसके बग़ैर मैं एकाग्र हो ही नहीं पाता हूं.

 

मेरा यही कमरा कोरोना काल में मेरे बहुत सारे सजीव प्रसारण आदि के लिए स्टूडियो भी बना और अब भी यू ट्यूब के अपने पाक्षिक कार्यक्रम डियर साहित्यकार के लिए मैं यही से अपने अतिथि साहित्यकारों से संवाद करता हूं. अगर मन होता है तो इसी कमरे की अपनी पढ़ने-लिखने की टेबल पर मैं लैपटॉप पर कोई फ़िल्म वगैरह भी देख लेता हूं. मेरा लैपटॉप एक बड़े स्क्रीन से जुडा हुआ है अत: उस पर फिल्म देखना सुविधाजनक व सुखद रहता है.

 

तो यह था मेरा कमरा पुराण!

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Tuesday, November 7, 2023

अब बुज़ुर्ग लोग ज़्यादा खुश नज़र आने लगे हैं!

 क्या आपका भी ध्यान इस बात की तरफ गया है कि आज़ादी के बाद हमारे यहां जो बहुत सारे बदलाव देखने में आए हैं उनमें से एक बदलाव यह भी है कि अब लोग ज़्यादा समय जवान रहने लगे हैं, या कहें कि अब बुढ़ापा देर से आने लगा है! अपनी बात को और स्पष्ट करूं. अगर आपके पास हो तो अपने पिता या दादा की, दादी या नानी की कोई पुरानी तस्वीर निकाल कर देखें. ऐसी तस्वीर जो उनकी साठ बरस के आस पास की उम्र में ली गई हो.  आप पाएंगे कि वे उस तस्वीर में बहुत अस्त  व्यस्त, थके-मांदे, जर्जर और टूटे बिखरे नज़र आ रहे हैं. अब ज़रा उस तस्वीर की तुलना आज के साठ बरस के किसी स्त्री या पुरुष से कीजिए. क्या कल के साठ वर्षीय और आज के साठ वर्षीय आपको एक जैसे लगते हैं? अगर हां, तो फिर इन बरसों में कोई बदलाव नहीं हुआ है, और अगर इस सवाल का जवाब 'नामें है तो सोचने की बात है कि जो बदलाव हुआ है वह कैसे और क्यों  हुआ है! 

मेरा स्पष्ट विचार है आज़ादी के बाद के इन बरसों में हम बुढ़ापे को आगे धकेलने और उसके स्वरूप को बदलने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं. आज़ादी के शुरुआती बरसों में लोग साठ की उम्र के आस पास जैसे नज़र आते थे वैसे तो अब अस्सी की उम्र के आस-पास भी नज़र नहीं आते हैं. इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि लोगों की औसत उम्र में वृद्धि हुई है और स्वास्थ्य की स्थितियां पहले से बेहतर हुई हैं. ऐसा बदलाव केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के बहुत सारे देशों में हुआ है. वे बहुत सारी बीमारियां जो हमारे बचपन में जानलेवा मानी जाती थींअब उनका नामो निशां ही नहीं बचा है.  इस बात को भी याद कीजिए कि आज से चालीस-पचास बरस पहले कितने लोगों के चेहरों पर  चेचक के दागों के निशान हुआ करते थे, और आज की पीढ़ी इस रोग का नाम तक नहीं जानती है. यह तो मात्र एक उदाहरण है. ऐसे अनेक उदाहरण आप खुद याद कर सकते हैं. 

एक और बड़ी बात यह हुई है कि  लोगों में अपनी सेहत के प्रति जागरूकता बहुत तेज़ी से बढ़ी है. लोग अपने खान-पान के मामले में बहुत सजग हुए हैं और भले ही फास्ट फूड और जंक फूड का चलन बढ़ा है, लोगों में उनके दुष्प्रभावों के बारे में सजगता भी खूब बढ़ी है. फास्ट फूड वगैरह का अधिक चलन उस युवा पीढ़ी में है जो इनके दुष्प्रभावों का सहजता से मुकाबला कर लेती है. बाद वाली पीढ़ी यथासम्भव इनसे दूरी बरत कर अपनी सेहत की परवाह का परिचय देती है. जिनके लिए तनिक भी सम्भव है वे समय-समय पर अपने स्वास्थ्य की जांच करवाते हैं और जैसे ही किसी रोग के प्रारम्भिक लक्षण नज़र आते हैं वे समय रहते उस रोग के उपचार की दिशा में प्रवृत्त होते हैं. मधुमेह, उक्त रक्तचाप आदि के बारे में लोग बहुत ज़्यादा सावधान रहने लगे हैं, जबकि मुझे अच्छी तरह स्मरण है, मेरे बचपन में इन रोगों की शायद ही कभी चर्चा होती हो. रोग तो तब भी रहे होंगे, लेकिन लोग ही उनसे अनजान थे.  फिटनेस के प्रति जागरूकता बढ़ने का आलम यह है कि घोर पारम्परिक नज़र आने वाले स्त्री-पुरुष भी सुबह शाम पार्कों में घूमते नज़र आते हैं और हर शहर कस्बे में नित नए जिम खुलते जा रहे हैं. जीवन शैली में आए बदलावों का सामना लोग अधिक शारीरिक सक्रियता के साथ कर रहे हैं. 

फ़िल्मों, मीडिया और अब सोशल मीडिया ने भी हमें अपने व्यक्तित्व, अपने रख-रखाव और रहन-सहन के प्रति अधिक सजग बनाया है. मुझे तो यह भी लगता है कि जब से विश्व सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारत की सहभागिता बढ़ी है, उसका एक असर हम सब पर यह भी हुआ है कि हम अपने रहन-सहन में और विशेष रूप से अपने पहनावे वगैरह के मामले में अधिक सजग हो गए हैं. बाद के समय में जब अभिनेत्रियों में ज़ीरो फ़िगर का क्रेज़ प्रचारित हुआ, उसका अप्रत्यक्ष असर हम सब पर यह हुआ कि हम भी अपने शरीर की अतिरिक्त  चर्बी को लेकर लज्जा का अनुभव करने लगे. इन सारी बातों का मिला-जुला असर यह हुआ है कि आज का एक आम भारतीय पहले के भारतीय की तुलना में अधिक सेहतमंद और अधिक चुस्त-दुरुस्त नज़र आने लगा  है. 

इसे बाज़ार का असर कहें, प्रचार का असर कहें, भौतिकवाद का बढ़ता असर कहें, पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहें,  - जो चाहे कहें, इतना बहुत स्पष्ट है कि  अब बढ़ी उम्र के भारतीय अपने लिए भी जीने लगे हैं. भरत व्यास का लिखा और आशा भोसले का गाया एक पुराना गाना अनायास याद आ रहा है: "गीत कितने गा चुकी हूं इस सुखी जग के लिए/ आज रोने दो मुझे पल एक अपने भी लिए मुझे." आज की उम्रदराज़ पीढ़ी, अपने सारे दायित्व पूरे कर लेने के बाद जीवन का उत्तर काल अपनी अधूरी रह गई आकांक्षाओं को पूरा करते हुए भी बिता रही है. यह आकस्मिक नहीं है कि हमारे पर्यटन स्थलों पर, रेल स्टेशनों और हवाई अड्डों पर पहले से ज़्यादा बुज़ुर्ग नज़र आते हैं. अब न तो वे इस तरह सोचते हैं और न कोई समझदार उन्हें देखकर ऐसी टिप्पणी करता है कि 'भला इस उम्र में यह सब शोभा देता है?'  पश्चिम में तो यह आम बात है कि लोग ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा अपनी ज़िमेदारियां पूरी करने में बिताते हैं और बुढ़ापा अपनी बाकी रह गई हसरतों को पूरा करते हुए मस्ती के साथ गुज़ारते हैं. अब हमारे यहां भी ऐसा ही होने लगा है. और यह बदलाव सुखद है. 

इतना सब कह देने के बाद कुछ बातें और कह देना ज़रूरी लग रहा है. अब तक मैंने जो लिखा है वह पूरे भारत के वृद्धजन का यथार्थ नहीं है. असल में भारतीय समाज बेपनाह विविधता भरा समाज है. यहां अगर ऐसे लोग हैं जो सुबह आधा पेट भर पाते हैं और शाम को कुछ मिलेगा या नहीं, इसकी अनिश्चितता में जीते हैं तो ऐसे भी हैं जिनके पास अकूत सम्पदा है. ऐसे में कोई भी सच पूरे भारतीय समाज का सच तो हो ही नहीं सकता. मैंने जो लिखा है वह ठीक-ठाक स्थितियों वाले मध्यमवर्गीय भारतीय समाज को ध्यान में रखकर लिखा है. इस समाज में भी सबकी स्थितियां तो एक जैसी नहीं हैं. अनेक ऐसे हैं जो अलग-अलग कारणों से सुखी-संतुष्ट जीवन नहीं जी पा रहे हैं. किसी को शारीरिक कष्ट है तो किसी को पारिवारिक-मानसिक संताप. किसी को आर्थिक असुविधाएं हैं तो किसी को मानसिक बनावट जन्य व्यथाएं. कुछ जैसे इसी ज़िद पर अडे रहते हैं कि उन्हें बाबा तुलसीदास के इस कथन को ग़लत साबित नहीं होने देना है -  'सकल पदारथ एहि जग माहीं कर्महीन नर पावत नाही' तो कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए वह लतीफा ही मूल मंत्र है जिसमें एक अधनंगा-सा बंदा किसी सूखे पेड़ पर टिक कर मूंगफली चबा रहा था और जब किसी ने उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो, तो उसका जवाब था, ज़िंदगी में अपने तो दो ही शौक हैं -अच्छा खाना और अच्छा पहनना! 

इतना सब कुछ कह चुकने के बाद अब बस, यह कहना शेष रह गया है कि बाह्य स्थितियों के साथ-साथ हमारी आंतरिक मनोदशा भी यह तै करती है कि हम खुश हैं या नहीं! खुशी बाहर से ही नहीं आती है, उसे अपने भीतर से भी बाहर आने देना होता है.  

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अविस्मरणीय श्रीमती विनोद गर्ग

 हमारा जीवन भी कितना विचित्रता भरा और विलक्षण है. आए दिन हम अनेक लोगों से मिलते-जुलते हैं और उनमें से अधिकांश को तुरंत ही बिसरा भी देते हैं. यह स्वाभाविक भी है. आखिर हमरी स्मृति की भी तो कोई सीमा होगी होगी. कितनों को हम याद रखेंगे? जिनसे हमारा अधिक मिलना-जुलना होता है वे, बल्कि कहें उनमें से अधिकांश हमारी स्मृति में अटके रह जाते हैं. आप कहेंगे, यह तो स्वाभाविक बात है. इसमें विलक्षणता क्या है? मैंभी इसे स्वाभाविक ही मान रहा हूं. लेकिन मेरी बात इससे आगे से शुरू होती है. विलक्षणता यह है कि जीवन में कुछ लोग ऐसे भी आते हैं जिनसे हमारी मुलाकातें तो बहुत कम होती हैं लेकिन वे हमारी स्मृति का अटूट हिस्सा बन जाते हैं!  भले ही उनसे मिलने-जुलने, बोलने-बतियाने के ज़्यादा अवसर हमारे जीवन में न आए हों, जब हम अपनी यादों की किताब के पन्ने पलटते हैं तो वे वहां मौज़ूद मिलते हैं. 


ऐसे ही एक विलक्षण व्यक्तित्व को आज मैं याद कर रहा हूं. और याद बहुत दुख के साथ कर रहा हूं. दुख इस बत का कि अब वे सदेह इस धरा पर मौज़ूद नहीं हैं. क्रूर काल ने उन्हें हमसे छीन लिया. लेकिन उनकी स्मृति अभी हमारे साथ है, और सदा हमारे साथ रहेगी. मैं बात कर रहा हूं जानी-मानी शिक्षाविद और शैक्षिक प्रशासक स्वर्गीया श्रीमती विनोद गर्ग की. क्योंकि वे और मैं - हम दोनों ही राजस्थान के कॉलेज शिक्षा विभाग में रहे, और लगभग समकालीन रहे, यह स्वाभाविक ही था कि हम एक दूसरे के नाम से परिचित थे. प्रत्यक्ष उनके सम्पर्क में आने का अवसर मुझे उदयपुर में एक प्रशासनिक प्रशिक्षण के दौरान मिला. वहां ओटीएस में राजकीय सेवा नियमों आदि के बारे में कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम था, जिसमें भाग लेने के लिए मैं और श्रीमती विनोद गर्ग उदयपुर में थे. तब हालांकि हमारा परिचय औपचारिकताओं से आगे नहीं बढ़ा लेकिन उनके सौम्य व्यक्तित्व और सकारात्मक सोच ने मुझे बहुत प्रभावित किया. इसके बाद बरसों हम लोग नहीं मिले. कभी कोई ऐसा अवसर आया ही नहीं. लेकिन इसे मैं उनके व्यक्तित्व का जादू ही कहूंगा कि वे मेरी स्मृति से ओझल नहीं हुईं. 

इसके बाद एक संयोग यह बना कि मुझे जयपुर में कॉलेज शिक्षा निदेशालय (अब आयुक्तालय) में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्य करने का अवसर  मिला. तब मेरे एक साथी संयुक्त निदेशक डॉ जेके गर्ग भी थे. अपने उसी कार्यकाल में मुझे पता चला कि श्रीमती विनोद गर्ग डॉ जेके गर्ग की सहधर्मिणी हैं. अपने उस कार्यकाल के दौरान  एकाधिक बार मुझे श्रीमती गर्ग से मिलने के अवसर मिले और हर मुलाकात के बाद  उनके प्रति मेरा आदर भाव और अधिक सघन हुआ. 


जेके गर्ग साहब और मेरे सेवा निवृत्त हो जाने के बाद एक और अवसर आया श्रीमती गर्ग से मुलाकात का. गर्ग परिवार ने  ने अजमेर में गर्ग दम्पती के विवाह की स्वर्ण जयंती पर एक शानदार आयोजन किया. मेरे पूर्व सहकर्मी जेके गर्ग साहब का पुरज़ोर आग्रह था कि कि मैं इस आयोजन में उपस्थित रहूं. उस समय एक बार फिर श्रीमती गर्ग के स्नेहिल व्यक्तित्व से अभिभूत होने का सौभाग्य मुझे मिला. बाद में गर्ग दम्पती अजमेर से जयपुर ही आकर बस गए और इस बात की बहुत सम्भावनाएं थीं कि हमारा अधिक मिलना-जुलना होता. लेकिन कोविड ने इन सम्भावनाओं को यथार्थ में परिणत नहीं होने दिया. 

 

आज जब श्रीमती गर्ग अनंत की यात्रा पर प्रस्थान कर चुकी हैं, मुझे इस बात का अफ़सोस हो रहा है कि मैं उनके वात्सल्यपूर्ण और स्नेह भरे सान्निध्य का अधिक लाभ नहीं ले सका. लेकिन वे अपनी प्रखर बौद्धिकता, अपने सौम्य शालीन व्यक्तित्व, अपने प्रशासनिक कौशल और ऐसे ही अन्य अनेक गुणों के कारण सदैव मेरी स्मृति में रहेंगी. 


उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि! 


यहां से पीछे की तरफ देखना.....

 जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं तो एक भारतीय औसतन जितनी ज़िंदगी जीता है उससे काफी ज़्यादा जी चुका  हूं. कितना रोचक और रोमांचक है 75 वीं सीढ़ी के पार पहुंचकर इस यात्रा के प्रारम्भ की कल्पना करना, उसके बारे में सोचना और अपनी स्मृति को खींच-खांचकर जहां तक वह पहुंच सकती  हो वहां तक ले जाना!  मुझे हरिवंश राय बच्चन का एक गीत बहुत पसंद है – “जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं....” गीत पसंद क्यों है, नहीं बता सकता. मेरा अपना जीवन तो कोई ख़ास आपाधापी वाला नहीं रहा कि यह सोचने का वक़्त ही नहीं मिला हो कि “जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला! जब मेरे जैसी ज़िंदगी जीने वाले लोग अपने संघर्षों की बात करके सहानुभूति बटोरने का उपक्रम करते हैं  तो मुझे आश्चर्य भी होता है, हंसी भी आती है. सच तो यह है कि हम लोगों ने, मुझ जैसे लोगों ने कोई संघर्ष किया ही नहीं. जो कुछ हमारी ज़िंदगी में रहा, उसे संघर्ष कहना संघर्षका अपमान करना होगा. बेशक हम लोग मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए, बेशक हमारी ज़िंदगी में इफ़रात नहीं थी लेकिन ऐसा भी नहीं था कि हमें पत्थर तोड़ने पड़े हों या दो-चार दिन भूखे रहना पड़ा हो. 

वैसे मुझे अपनी ही बात करनी चाहिए, अपने जैसों की नहीं. किन्हीं दो लोगों की ज़िंदगी यकसां नहीं होती है. इसलिए मुझे कोई हक़ नहीं कि मैं औरों की ज़िंदगी के बारे में यह कहूं कि उसमें संघर्ष था या नहीं था. मैं केवल और केवल अपनी बात कर रहा हूं. आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि ज़्यादा से ज़्यादा कितना पीछे देख सकता हूं तो ख़ुद मुझे बहुत आश्चर्य होता है. इसलिए आश्चर्य होता है कि मेरे पास अपने बचपन की कोई स्मृति है ही नहीं. पीछे मुड़ कर देखने की कोशिश करता हूं तो कुछ भी नज़र नहीं आता है. क्या सभी के साथ ऐसा होता है? आप भी सोच कर देखें कि उम्र के छह सात दशक जी लेने के बाद आप कितना पीछे तक देख सकते हैं! जब मैं अपने अतीत को विश्लेषित करके इस बात के लिए कोई तर्क जुटाने का प्रयास करता हूं तो मुझे एक ही बात समझ में आती  है और वह यह कि मेरे बचपन की कोई स्मृति ऐसी नहीं है जो बहुत सुखद हो, या जो बहुत कड़वी और त्रासद हो. इसलिए मुझे कुछ भी याद नहीं है. 

मेरे पिता उस पीढ़ी और सोच के इंसान थे जिनका अपने बच्चों से कोई संवाद नहीं होता था. वे मात्र पिता होते थे, जिनसे डरा जा सकता है. मैं भी डरता था. पिता से ही नहीं, मां से भी. घर में और तो कोई था ही नहीं. माता और पिता की उम्र में बहुत अंतर, और मैं उनकी आखिरी संतान. वैसे भी वो ज़माना बच्चों और मां-बाप के बीच दोस्ती और संवाद  का नहीं था. पिता बीमार रहने लगे थे. शायद  दमा था उन्हें. घर की अर्थ व्यवस्था डगमगाने लगी थी. तब तक विशेषज्ञ डॉक्टरों की सेवा लेने का चलन शुरु नहीं हुआ था, या शायद हम उस वर्ग के नहीं थे जो ये सेवाएं लिया करते हैं. मुझे इतना ही याद है कि मेरे पिताजी का इलाज़ या तो हमारे उसी मोहल्ले के माजी की बावड़ी के सामने स्थित  गणपत लाल जी कम्पाउण्डर के दवाखाने से होता था या फिर थोड़ा आगे घण्टाघर के पास स्थित डॉ करतार सिंह के शफाखाने से. करतार सिंह सम्भवत: आरएमपी (RMP) थे. मुझे प्राय: इनके यहां दवा लेने भेजा जाता था. कभी कभार ज़रूरत पड़ने पर इनमें से किसी को घर भी बुलाया जाता था और तब मेरी ड्यूटी होती थी डॉक्टर साहबके बैग को उठाकर लाने की. डॉक्टर साहब का बैग करीब-करीब वैसा होता था जैसा बाद में वैनिटी बॉक्स होने लगा. अब तो वह भी फैशन से बाहर हो चुका है. 

पिता जी के  मन में मुझे लेकर खूब सारे सपने थे. यह कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तब हमारी दुकान का भी खूब विस्तार हो जाएगा और मैं उसे सम्हालूंगा. मज़े की बात यह कि उन सपनों में, जो मेरे आठ-दस बरस का होने तक देखे जाते थे, मेरी पत्नी भी होती थी, जो उस दुकान की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती थी. इसके बाद तो पिताजी की बीमारी बढ़ती गई और सपने देखने की स्थितियां नहीं रहीं.  मुझे यह बात याद है कि हमारी दुकान पर ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स भी बेची जाती थी. वह 78 आरपीएम रिकॉर्ड्स का ज़माना था. ईपी, एलपी वगैरह तब तक चलन में नहीं आई थी. कैसेट्स का ज़माना तो तब सोच से भी बाहर था.  और मेरे माता-पिता बड़े गर्व से इस बात का ज़िक्र आने जाने वालों के सामने किया करते थे कि उनका बेटा, अर्थात मैं इतना प्रबुद्ध है कि  वह बिना पढ़ना आए भी महज़ लेबल देखकर मनचाही रिकॉर्ड खोज कर ला सकता है. पिताजी मुझे कभी-कभार रेल्वे स्टेशन पार्सल लेने भी भेजा करते थे. रेल्वे स्टेशन हमारे घर से कोई चारेक किलोमीटर दूर था और मैं किराये की साइकिल लेकर वहां जाता था. तब तक उदयपुर सिटी  रेल्वे स्टेशन नहीं बना था और उदयपुर में केवल एक रेल्वे स्टेशन था जिसे अब राणा प्रताप नगर नाम से जाना जाता है. 

बचपन में खेलने की,  कोई शरारत करने की, माता या पिता का लाड़ पाने की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. जहां तक मां-बाप द्वारा लाड़ किये जाने का सवाल है, लाड़ तो वे करते ही होंगे. कोई कारण नहीं है कि उन्हें मुझ पर ममत्व न हो, लेकिन जैसा मैंने कहा, वो ज़माना स्नेह के प्रदर्शन करने का नहीं था, और वे दोनों ही कठोर किस्म के व्यक्तित्व थे. इसलिए मुझे उन दोनों की कोमलता की कोई स्मृति नहीं है. पिता की जो अल्प स्मृतियां अब भी मुझे हैं उनमें एक तो यह है कि वे मुझे अपने साथ फोटो खिंचवाने ले गए हैं. पहले जहां पंचायती नोहरा था और बाद में जहां ओसवाल मार्केट बन गया उस जगह एक फोटोग्राफ़र उनका परिचित था, उसके पास वे मुझे ले गए थे.  उस ज़माने में बड़े कैमरे हुआ करते थे, जिसके पीछे एक बुरकानुमा लबादे में घुस कर फोटोग्राफ़र फोटो खींचता था. जिसका फोटो खींचा जा रहा है उसे और विशेष रूप से बच्चों को स्थिर रखने के लिए वो कहता था कि "देखो, अभी इस कैमरे में से चिड़िया निकलेगी".  तब का खिंचवाया हुआ फोटो अब भी मेरे  संग्रह में है. एक और स्मृति यह है कि वे मुझे बहुत महंगा कमीज़ का कपड़ा दिला कर लाये हैं. कपड़ा आज के क्रेप से मिलता-जुलता था. यह बात तो मुझे बहुत बार याद आती है कि जब भी मैं बीमार पड़ता मेरे पिता मुझसे पूछते कि मुझे क्या चाहिए, और मैं हर बार बिस्किट की  मांग करता. तब वे जेबी मंघाराम का असोर्टेड बिस्किट का डिब्बा मेरे लिए मंगवाते. 

यह याद नहीं पड़ता कि कभी भी पिता ने मुझे अपने पास बैठकर खाना खिलाया हो. एक थाली में खाना खिलाना तो बहुत दूर की बात है. तब हमारी रसोई तीसरी मंज़िल पर छत के एक सिरे पर थी. वहां मां लकड़ी वाले चूल्हे पर खाना बनाती थी और पिताजी वहीं रसोई में ज़मीन पर बैठकर खाना खाते थे. साथ खिलाने की बात मैंने इसलिए की कि बाद में जब मैं अपने अमरनाथ जी (बुआ के बेटे) भाई साहब के घर जाने लगा तो वे अनिवार्यत: मुझे अपने साथ बिठाकर एक ही थाली में खाना खिलाते. यह बात अलग है कि तब तक मैं अलग थाली लेकर खाना खाने का इतना अभ्यस्त हो चुका था कि उनका यह लाड़ मुझे अखरता था. लेकिन मैंने इस बात को कभी जताया नहीं. आज पहली बार यह बात अभिव्यक्त हो रही है. पिताजी के मन में शालीन वेशभूषा की अलग परिकल्पना थी जो उनके समय के अनुरूप थी, लेकिन मैं उससे भिन्न अपने समय वाले कपड़े पहनना चाहता था. ऐसा करने में मेरी मां मेरा सहारा बनतीं. वैसे तब तक हालत यह हो गई थी कि कपड़े ख़रीदने के अवसर कम ही आते थे. 

पिताजी की जो स्मृति मेरे जेह्न में अमिट है वह उनके आखिरी दिन की है. 15 दिसम्बर 1959 का दिन था वह. मेरी उम्र 14 बरस. लेकिन या तो उस ज़माने के बच्चे आज की तुलना में कम समझदार होते थे या औरों की तुलना में मैं कम समझदार था. इसलिए बहुत ज़्यादा जानकारियां मुझे नहीं है. सुबह से पिताजी की तबीयत कुछ ज़्यादा खराब थी. खराब तो लम्बे समय से थी ही. शायद मां को यह एहसास हो गया था कि अब दिया बुझने को है. पिताजी कमरे में लेटे हुए हैं, मां उनके पास है. वे एक सिगरेट मांगते हैं और मां मुझे नीचे हमारे घर के सामने गणेश लाल जिसे मुहल्ले की नाम बिगाड़ने की परम्परा के तहत गुण्या कहा जाता था,  की दुकान से सिगरेट लेने भेजती हैं. अपने पिता की सिगरेट पीते हुए कोई छवि मेरे मन पर अंकित नहीं है. सम्भव है कि वे नियमित स्मोकर न हो कर कभी कभार स्मोक कर लेते हों. लेकिन मेरे सामने उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया. यह पहला और अंतिम मौका था. और रोचक बात यह कि उनके लिए सिगरेट  लेने जाने की बात तो मुझे याद है लेकिन यह बात स्मृति में नहीं है कि मैंने सिगरेट लाकर किसको दी? मां को या पिताजी को? फिर उन्होंने पी या नहीं. 

इसके बाद स्मृति एक छोटी-सी छलांग लगाती है. पिता आखिरी सांस ले चुके हैं. सुबह दस बजे के आस-पास का समय है. मां गज़ब का धैर्य दिखाती हैं. मुझे वे कहती हैं कि अभी रोना मत, वरना मोहल्ले वालों को पता लग जाएगा. और इसके बाद वे जिस धैर्य और हिम्मत से सब कुछ व्यवस्थित करने में जुटती है उसे याद कर आश्चर्य होता है. अनुमान  लगाता हूं कि तब मेरे पिता की उम्र 75 के आस पास और मां की उम्र चालीस के आस-पास रही होगी. सब कुछ ठीक कर वे मेरे भाई साहब अमरनाथ जी को ख़बर भिजवाती हैं, और वे तुरंत आकर सारी व्यवस्थाएं करने में जुट जाते हैं. अमरनाथ जी से मेरे माता-पिता के रिश्ते बहुत अजीब रहे. मेरे पिता ही उन्हें हिसार से उदयपुर लाए, उन्हें अपने पास रखा, घड़ीसाज़ी का काम सिखाया, उनकी शादी की. और उसके बाद जाने क्या हुआ कि बोलचाल का रिश्ता भी नहीं रहा. न कभी मेरे पिता ने और न ही कभी मां ने खुलकर इस पर प्रकाश डाला. मैंने पिता के निधन तक उनके और हमारे परिवार में कोई सम्वाद नहीं देखा. पिता के जाने के बाद भी मां के रिश्ते उनके साथ ऊबड़- खाबड़ ही रहे. और यह तब जबकि मेरी मां के मन में भाई साहब के प्रति और भाई साहब के मन में अपनी मामीजी अर्थात  मेरी मां के प्रति अगाध प्रेम था. इसे रिश्तों की द्वंद्वात्मकता कहा जा सकता है. यह बात बहुत मार्मिक है कि रिश्तों में पड़ी दरार के बावज़ूद भाई साहब ने मेरे पिता और बाद में मां के अंतिम संस्कार व सम्बद्ध  रस्मों के निर्वहन में सर्वाधिक सक्रिय भूमिका अदा की.  पिता और मां के न रहने के बाद मेरे तो उनसे और भाभी से रिश्ते बहुत ही जीवंत और सघन रहे. आज जब वे और भाभी दोनों इस दुनिया में नहीं हैं तब भी उनकी अगली पीढ़ी से हमारे रिश्ते बहुत ही मज़बूत हैं. 

भाई साहब के निर्देशानुसार मैंने पिताजी के अंतिम  संस्कार की सारी रस्में पूरी कीं. बाद में उनकी अस्थियां लेकर हरिद्वार भी गया. ठीक से याद नहीं लेकिन शायद मेरी मां भी साथ गईं. यह पिताजी के निधन के कुछ समय बाद की बात है. मेरे पिता के निधन पर शोक व्यक्त करने ग़ाज़ियाबाद से मेरी मौसी और उनके साथ नानी भी आईं. इन दोनों को भी मैंने पहली दफा देखा. मेरे पिता और माता के स्वभाव में जो उग्रता, आक्रामकता और अक्खड़पन था उसी का यह परिणाम था कि ज़िंदगी के शुरुआती चौदह बरसों में मैंने अपनी मौसी और नानी को देखा ही नहीं.  मेरे नानाजी काफी पहले दिवंगत हो चुके थे. मां के परिवार में बस ये ही दो सदस्य थे. लेकिन इसके बावज़ूद इनमें कोई रिश्ता इतने बरस तक नहीं था. मौसी जी का वैवाहिक जीवन उतार-चढ़ावों भरा रहा. जब पिता का निधन हुआ तब वे ग़ाज़ियाबाद में अपने रुग्ण पति और उनकी तीन संतानों के साथ रहती थीं. ‘उनकी संतानें’ इसलिए कि मौसी जी इनकी दूसरी पत्नी थीं. कुछ समय बाद इन मौसाजी का भी निधन हो गया और संक्षेप में मात्र इतना कि जो सम्पत्ति मौसा जी मौसी जी के नाम कर गए थे उसे हथियाने के बाद उनके तीनों बच्चों ने मौसीजी को घर से निकाल दिया. तब उन्हें शरण मिली मेरी मां के पास. फिर मौसी जी मेरी मां की मृत्यु के बाद भी, अपने अंतिम समय तक हमारे साथ रहीं.  

जिस ज़माने में मेरे पिता का निधन हुआ उस ज़माने में उदयपुर में और विशेष रूप से हमारे समाज और मोहल्ले में यह प्रथा थी कि जिस स्त्री के पति का निधन हो जाए उसे पूरे एक साल तक एक ही कमरे में कोने में बैठे रहना होता था. स्थानीय बोली में इसे खूणे बैठना  कहा जाता था.  स्वाभाविक है कि मेरी मां को भी इस  रीत का पालन करना पड़ा. लेकिन आज उनके साहस को याद कर नतशिर होता हूं कि उस पारंपरिक, बल्कि कहें कि घोर रूढ़िवादी परिवेश में भी उन्होंने इस रीत को बहुत जल्दी अंगूठा दिखा दिया. यह उनका साहस तो था ही, मज़बूरी भी थी. अगर वे बारह महीने इस तरह कोने में बैठी रहतीं तो ज़िंदगी की गाड़ी कैसे चलती? कोई भी तो सम्बल नहीं था हमारे पास. मात्र दो-तीन माह खूणे बैठने के बाद मेरी मां दुकान सम्हालने लगीं. हम लोग तब जिस किराये के घर में रहते थे उसमें नीचे हमारी दुकान थी और ऊपर आवास. दुकान की बगल में  सीढ़ियां थीं. उन्हीं सीढ़ियों से बिना धरातल पर गए भी दुकान में जाया जा सकता था. मेरी मां वहीं सीढ़ियों पर बैठकर मुझे निर्देशित करतीं और मेरा ध्यान भी रखतीं. वैसे उस दुकान में ज़्यादा कोई व्यावसायिक सम्भावनाएं नहीं थीं. माल हो तो ग्राहक आएं. माल मंगवाने के पैसे नहीं. फिर भी मां उस दुकान को चलाती रहीं. एक तो इस आस में कि जो थोड़ा बहुत माल बिकेगा उससे कुछ पैसे आएंगे,  और दूसरे,  इससे बड़ी बात यह कि दुकान रहेगी तो उनके पति का नाम भी रहेगा. 

अपने पति के नाम वाली दुकान को लेकर उनका मोह और अभिमान बहुत गहरा था. और इसे एक विडम्बना ही कहूंगा कि मैं उनके इस भाव की रक्षा नहीं कर सका. कोई योजना नहीं थी, लेकिन नियति मुझे व्यापार की दुनिया से निकाल कर नौकरी की दुनिया में ले गई और इसकी परिणति अंतत: उस दुकान के बंद होने में हुई. शायद इस बात ने मेरी मां को बहुत आहत किया होगा.  उन्होंने कभी खुलकर कहा नहीं लेकिन अब मैं उनकी मन:स्थिति का अनुमान लगा  सकता हूं. उनके आहत मन की ही शायद यह परिणति भी हुई कि बावज़ूद इसके कि मैं उनकी इकलौती संतान था, वे मेरे प्रति कभी भी बहुत ममतालु नहीं रहीं. लड़ना झगड़ना मेरे स्वभाव में नहीं है, लेकिन उन्होंने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी. रूठतीं, गुस्सा करतीं, भला-बुरा कहतीं, ज़माने भर से बुराई करतीं. लेकिन थी तो मां ही. उन्होंने और फिर उनके साथ और बाद में हमारी मौसी ने हमारी ज़िंदगी को जितना कष्टप्रद बनाया, उसे याद कर मन आज भी बहुत दुखी होता है. मेरी मां बहुत ज़िद्दी, निर्मम और जटिल व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं. वे स्वयं भी खुद को कट्टर कहती थीं और अपनी मां, अपनी बहन के साथ रिश्तों में उन्होंने इस बात को साबित भी किया था. लेकिन बाद में यही कट्टरता उन्होंने मेरे और पत्नी के साथ भी बरती. मुझे एक भी याद ऐसी नहीं है जिसमें हमारे प्रति उनका उन्मुक्त प्रेम प्रकट होता हो. अलबत्ता हमारे दोनों बच्चों के साथ उनका बहुत गहरा लगाव रहा. 

अब बहुत आगे जाकर जब पीछे मुड़कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि मेरे से उनके प्रति व्यवहार में कहां कोई चूक हुई, तो मुझे कुछ भी नहीं मिलता है. अपनी तरफ से मैंने उन्हें सम्मान देने और उनके प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करने में कोई कृपणता नहीं की. लेकिन वे असंतुष्ट ही रहीं. बाद के वर्षों में उनकी चिंता का केंद्र अपनी बहन अर्थात मेरी मौसी हो गईं और हालांकि मैं उन्हें बहुत बार यह विश्वास दिलाता रहा कि उनके जाने के बाद भी मौसी हमारे साथ हमारे परिवार के सदस्य की हैसियत से ही रहेगी, वे कभी आश्वस्त नहीं हुईं. मौसी के भविष्य को लेकर मेरे, बल्कि हमारे प्रति जाने क्यों एक गहरा अविश्वास का भाव उनके मन में रहा, और उन्होंने इसे खुलकर अभिव्यक्त भी  किया.  मां, जितनी जटिल और निर्मम थीं, मौसी उनकी तुलना में बहुत सौम्य, स्नेहिल और सीधी थीं. लेकिन उनका भोलापन उनकी सबसे बड़ी सीमा था. किसी ने कुछ कह दिया, बल्कि नहीं भी कहा लेकिन उन्होंने जैसा समझ लिया वही उनके लिए अंतिम होता था. हमारी भरपूर सेवा के बावज़ूद वे भी कभी हमसे प्रसन्न नहीं रही. इन दोनों के व्यवहार को जितना मैंने सहा, उससे बहुत ज़्यादा मेरी पत्नी ने सहा. लेकिन अब यह सब अतीत है. भुला  देने काबिल अतीत. जो बीत गई सो बात गई!  

फिर थोड़ा पीछे लौटता हूं. मैं दुकान पर बैठने लगा, और साथ-साथ पढ़ाई भी ज़ारी रही. उस साल दसवीं की परीक्षा दी, पास हुआ. और ज़िंदगी की गाड़ी हिचकोले खाती चलती रही. इसी बीच भाई साहब की सलाह पर मेरी मां ने अपनी तमाम जमा पूंजी और गहने वगैरह बेचकर तथा  कुछ कर्ज़ा लेकर उस किराये के मकान को खरीद लिया. तब वो मकान ग्यारह हज़ार रुपये में खरीदा गया. असल में उसे खरीदने की बात तो मेरे पिताजी ने पक्की कर ली थी लेकिन  किस्मत को शायद यह मंज़ूर नहीं था कि अपने जीते जी वे अपना मकान देख सकते. भाई साहब का सोच यह था कि सर पर अपनी छत हो तो जीवन सुरक्षित रहता है. इन मामलों में वे बहुत व्यावहारिक थे, मेरे पिता बिल्कुल भी नहीं थे. बाद में भाई साहब ने तो कम और भाभी ने कई बार यह ताने भी दिये कि मेरे पिता ने खूब कमाया और खूब उड़ाया. यह बात वे एक स्थानीय अभद्र  कहावत के माध्यम से कहतीं.  वैसे अपनी प्रारम्भिक ज़िंदगी में मैंने ताने बहुत सुने हैं. जब आपके पास कुछ नहीं हो तो लोग और कुछ दें न दें, ताने देने में कोई कंजूसी नहीं करते हैं - यह बात  मुझे उस छोटी उम्र में ही पता चल गई थी. 

उस ज़माने में हमारा घर कैसे चलता होगा, हम क्या खाते-पीते होंगे, इन सब बातों की सहज ही कल्पना की जा सकती है. जब आपके पास न तो जमा पूंजी हो और न आय का कोई साधन तो ज़िंदगी कैसी हो सकती है? वैसी ही थी हमारी ज़िंदगी. बेरंग, बेनूर, बेस्वाद. कोई राह नहीं. कोई रोशनी की किरण नहीं और फिर भी चले जा रहे थे. जाने कहां? शायद  मां सोचती होंगी कि बेटा थोड़ा बड़ा हो जाएगा, घड़ीसाज़ी सीख जाएगा तो दुकान फिर से चलने लगेगी. उसी क्रम में मैंने भाई साहब की दुकान पर जाकर घड़ीसाज़ी सीखना शुरु भी कर दिया था. जो काम भाई साहब ने मेरे पिताजी से सीखा था वही काम वे मुझे सिखा रहे थे. मैं कॉलेज भी जाता और वहां से जो समय बचता उसमें घड़ीसाज़ी सीखता. मां खुलकर दुकान पर बैठने लगीं. उस ज़माने के उदयपुर में यह कितने बड़े साहस और क्रांतिकारिता की बात थी, कल्पना की जा सकती है. मां में बात करने का और सुनने वाले पर अपना रौब ग़ालिब करने का कौशल था. भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थीं, जीवन के अनुभव और सुन सुनकर अर्जित ज्ञान की उनके पास कोई कमी नहीं थी. 

मैं भी थोड़ी बहुत घड़ीसाज़ी करने लगा था, जिससे हमारा जीवन थोड़ा-सा, बहुत थोड़ा-सा सहज हो रहा था. लेकिन इसी घड़ीसाज़ी ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी. कैसे, यह जानने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा.  इस बात को आगे विस्तार से लिखूंगा. अभी केवल यह विडम्बना व्यक्त कर दूं कि मां ने मुझे घड़ीसाज़ी सीखने की दिशा में इसलिए अग्रसर किया था कि मैं उनके पति के नाम वाली दुकान को ज़िंदा रखूंगा, और कम्बख़्त इसी घड़ीसाज़ी ने मुझे जिस राह पर ले जाकर खड़ा कर दिया उस राह पर चलने की परिणति इस दुकान के बंद होने में हुई. क्या इसी को दवा का ज़हर हो जाना कहेंगे? 

मैंने अपनी बात की शुरुआत स्मृतियों के अभाव से की थी. बचपन की और किशोरावस्था की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. क्यों नहीं है, यह बात कुछ हद तक शायद स्पष्ट हुई हो. न हुई हो तो उसे स्पष्ट करने का कोई तरीका मुझे सूझ भी नहीं रहा. जैसे तैसे गर्दिश के ये दिन बीते, मेरे जीवन की गाड़ी ऊबड़ खाबड़ पथरीली सड़क से हटकर एक समतल सड़क पर आ गई. यह हुआ 1967 में मेरे नौकरी लगने से. घर में लिखने-पढ़ने की कोई परम्परा नहीं और मैं बन गया कॉलेज लेक्चरर. ज़िंदगी में अजूबे भी तो घटते हैं. यह भी एक अजूबा  था. इसलिए भी था कि मेरी मां की योजना में मेरा नौकरी करना तो कहीं था ही नहीं. और मेरी अपनी योजना? वह कहावत तो सुनी है न - बेगर्स काण्ट बी चूजर्स! फिर बच्चन जी के उसी गीत को याद करूं. वे लिखते हैं, "फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा/ मैंने भी बहना शुरु किया उस रेले में." अब लगता है कि हिंदी में एमए करना, लेक्चरर  के पद के लिए आवेदन करना, नौकरी मिलने पर नौकरी जॉइन कर लेना - ये सब धक्के में ही तो हुआ. सोचा-समझा तो कुछ भी नहीं. 

जब नौकरी लगी तो दो वक़्त की रोटी की फिक्र मिटी. उस समय मेरी तनख़्वाह थी कुल तीन सौ पिच्चानवे रुपये. दो सौ पिच्चासी रुपये मूल वेतन और उस पर एक सौ दस रुपये महंगाई भत्ता. जैसे ही हर माह इतने रुपये मिलने की आश्वस्ति हुई, लगा कि आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं  पे हम. उस वक़्त इतनी बड़ी धन राशि हर माह मिलने का जो सुख था आज उसे बयान नहीं कर सकता. हालांकि यह तनख़्वाह भी निर्बाध रूप से कहां मिलती थी. उस ज़माने में महालेखाकार कार्यालय से पे स्लिप आती थी, फिर हम बिल बनाते थे जिसे कोष कार्यालय पास करता था. इस तरह तीन-चार महीने में एक बार तनख़्वाह मिल पाती थी. लेकिन आश्वस्ति तो थी. मेरी पहली नौकरी भीनमाल नामक एक छोटे-से कस्बे में लगी, मैं पहली बार घर से बाहर निकला. तब सब कुछ कैसे किया होगा, यह सोचकर आश्चर्य होता है. जब तनख़्वाह  मिली तो अपने खर्च भर का पैसा रखकर शेष सब मां को दे दिया. आखिर हमें इस बीच समय-समय पर लिया गया कर्ज़ भी तो चुकाना था. 

यह एक यथार्थ है कि नौकरी लग जाने के बाद, बहुत लम्बे समय तक मैं आर्थिक रूप से ऐसी स्थिति में नहीं आ सका जिसे सुखद कहा जा सकता हो. बीस तारीख  के बाद पहली तारीख का इंतज़ार शुरु हो जाता. करीब-करीब पूरे नौकरी काल में यही हाल रहा. नौकरी के शुरुआती बरसों में हर माह मां-मौसी के लिए एक निर्धारित राशि भेजता. पहले मनीऑर्डर से और बाद में बीमाकृत लिफाफे में करेंसी नोट रखकर. यह करना वैध नहीं था इसलिए डाक खाने का बाबू हर बार उस बीमाकृत लिफाफे पर एक इबारत लिखवाता - "इस लिफाफे में मूल्यवान दस्तावेज़ हैं."  इस सबके बीच मेरा विवाह हुआ. उसका खर्चा भी इसी छोटी-सी तनख़्वाह से समायोजित हुआ. मेरी ज़िद थी कि मेरे ससुराल से कोई दहेज़ नहीं मांगा जाएगा,  जबकि मेरी मां और मौसी के सपने भिन्न थे. उन्होंने अपने छल छद्म का कौशल भी दिखाया, जिसे लेकर जब मुझे इसकी जानकारी मिली तो उनके और मेरे बीच बदमज़गी भी हुई. वैसे भी मेरे ससुर जी के आर्थिक स्रोत्र बहुत सीमित थे और परिवार बड़ा.  लेकिन आज मैं इस बात पर अपनी पीठ थपथपा सकता हूं कि अपनी विपन्नता के बावज़ूद मैंने खुद को उन पर बोझ नहीं बनने दिया. विवाह के अलावा, मां की मांग पर उदयपुर के घर में यथावश्यकता छोटी-मोटी रिपेयरिंग भी करवाता रहा. एक बार इस काम के  लिए सरकार से कर्ज़ा भी लिया. 

यह तो ठीक है कि मेरे दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में और बाद में सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़े इसलिए उनकी पढ़ाई का कोई बड़ा  बोझ मुझे नहीं उठाना पड़ा, लेकिन खर्चे तो होते ही थे. जब आजकल के बच्चों के पढ़ाई वगैरह के खर्चे देखता हूं तो बार-बार यह विचार आता है कि अगर ऐसा ही मेरे ज़माने में होता तो मैं अपने बच्चों को पढ़ा ही नहीं सकता था. और बच्चे तो बाद की बात हैं, मैं ख़ुद भी नहीं पढ़ सकता था. आज जब एक ख़ास राजनीतिक विचारधारा वाले लोग सरकार द्वारा दी जाने वाली तथाकथित मुफ्त सुविधाओं की आलोचना करते हैं तो यह बात मुझे और भी ज़्यादा याद आती है. लेकिन वे इस बात  को नहीं समझ सकते. उन्हें तो अपने दल के हित में सरकार का विरोध करना है. जब बच्चे, एक के बाद दूसरा इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिल हुए तो उनके रहने खाने का खर्च भी मेरी तनख़्वाह के अनुपात में ठीक-ठाक ही होता था. मेरे पास कभी इतने पैसे नहीं हुए कि बच्चों के पास एकाध महीने की अतिरिक्त राशि जमा रहे. हर माह मैं उन्हें पैसे भेजता और वे मेरे पैसों का इंतज़ार करते. इसके बावज़ूद  हमारे दोनों बच्चों ने कभी भी हमें अपनी आवश्यकताओं के लिए दबाव में नहीं आने दिया. कभी कोई मांग उन्होंने नहीं की और मेरी आर्थिक हैसियत के अनुरूप बहुत सादगी से अपनी पढ़ाई पूरी कर ली. सच तो यह है कि आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो इस बात का अफसोस ही होता है मैं अपने बच्चों को बहुत खुशनुमा ज़िंदगी नहीं दे सका. लेकिन इसके बावज़ूद आज दोनों ही बच्चे जहां हैं और जिस हैसियत में है उससे किसी को भी, ज़ोर देकर कह रहा हूं, किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है. इतना ज़रूर कहूंगा कि आज जहां वे हैं वह सब उनकी अपनी मेहनत का फल है. उसका श्रेय मुझे नहीं मिलना चाहिए.  और इतना ही नहीं उनके मन में कहीं दूर-दूर तक यह मलाल भी नहीं है कि हमने बचपन में उनकी इच्छाओं को बड़ा आकाश नहीं दिया. उलटे वे इस बात के लिए लालायित रहते हैं कि कैसे जीवन का सर्वश्रेष्ठ हमें उपलब्ध करा दें! 

जब अपने जीवन की इस स्मृति विहीनता की बात कर रहा हूं और उन स्थितियों का विश्लेषण कर रहा हूं जिनमें मेरे जीवन ने आकार लिया तो अनायास ही इस बात पर आश्चर्य भी हो रहा है कि कैसे बिना किसी योजना के मेरे जीवन की राह बदल गई, और कैसे मुझे जीवन में वह सब मिलता गया जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. भले ही मेरी मां ने मुझे इस बात के लिए माफ़ नहीं किया कि मैंने उनके पति का नाम विलुप्त कर दिया, आज मैं गर्व कर सकता हूं कि मैंने जीवन में जो कुछ हासिल किया वह भी मेरे पिता के  नाम से अधिक न भी हो तो उससे कम भी नहीं है. जब बहुत सारे लोगों के जीवन संघर्ष के बारे में पढ़ता हूं तो इस बात पर ध्यान जाए बग़ैर नहीं रहता है कि मेरे जैसी पृष्ठभूमि   वाले किसी युवा का कॉलेज शिक्षक बन जाना भी मामूली बात नहीं है. हिंदी के बहुत सारे बड़े लेखकों को तो आज तक यह अफसोस है कि वे कॉलेज प्राध्यापक नहीं बन सके. मैं न केवल प्राध्यापक बना, साढ़े तीन दशक पढ़ाता रहा. अध्यापक भी मैं ठीक ही रहा. अगर संकोच छोड़ कर कहूं तो बहुत अच्छा रहा. समय-समय पर, बल्कि समय से पहले,  योग्यता की वजह से आउट ऑफ टर्न,  मेरी पदोन्नति भी हुई और अपनी नौकरी में वहां तक पहुंचा जहां पहुंचने का बहुत लोग सपना भी नहीं देखते हैं. नौकरी के साथ-साथ साहित्य की दुनिया में भी अपने लिए थोड़ी-सी जगह बनाई, यह अतिरिक्त उपलब्धि है. 

पारिवारिक रूप से भी मेरी यात्रा बहुत अच्छी रही. कहां तो मेरे मां-बाप जो रिश्ते थे उनका भी निर्वाह नहीं कर सके, और कहां उन्हीं की वंश बेल को आगे बढ़ाता मैं दोनों तरफ के भरे-पूरे परिवारों से बहुत अच्छी तरह जुड़ा हुआ हूं. गर्व से कह सकता हूं कि मेरे और पत्नी के परिवारों में बिना किसी अपवाद के सभी से हमारे रिश्ते बहुत आत्मीयता और सद्भाव के हैं. निश्चय ही इसमें मुझसे अधिक योगदान मेरी पत्नी का है. अगर अवसर आया तो इस बात की चर्चा मैं आगे करने का प्रयास करूंगा कि किस तरह हम दोनों अपने पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता और ऊष्मा बनाए रख सके हैं. 

एक सामान्य मध्यमवर्गीय भारतीय के लिए बहुत बड़ा सपना होता है कि वह जीवन में एक बार हवाई जहाज में बैठे और विदेश यात्रा कर आए. मेरा भी सपना था. अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआती बरसों में एक बार कोटा से जोधपुर की किफायती हवाई यात्रा करके मैं अपने भाग्य पर बरसों इतराता रहा था. कितना टिकिट था इस यात्रा का? पूरे पैंतीस रुपये! लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध में  बच्चों के कारण हमारी ज़िंदगी ने ऐसा मोड़ लिया  अब हमने गिनना बंद कर दिया है कि कितनी बार विदेश गये हैं और किन-किन देशों की यात्राएं की हैं. पहले बेटी दामाद ने अमरीका में अपना घर बनवाया, और फिर बेटा बहू ने ऑस्ट्रेलिया में खूब बड़ा घर खरीदा. बेटा-बहू ने अपने नए खरीदे घर का औपचारिक गृह प्रवेश हमारे वहां जाने तक स्थगित रखा और फिर जब हम वहां जा सके तब हमसे ही अपने नए खरीदे बहुत विशाल घर के गृह प्रवेश की सारी रस्में सम्पन्न करवाईं. यह हमारे लिए बहुत बड़े गर्व की बात थी. 

ज़िंदगी में और क्या चाहिए? हमने अपनी ज़िंदगी करीब-करीब पूरी जी ली है. आज हर तरह का सुख और संतोष हमें है. दोनों बच्चे, और उनके जीवन साथी हमारा खूब ध्यान रखते हैं. उनके बच्चे अपने दादा-दादी और नाना-नानी से खूब घुले मिले हैं. बस, एक ही फर्क़ आया है बीते कल और आज में. हमने भी अपनी क्षमता भर अपनी मां-मौसी की सेवा की. इस बात को हमारे बच्चों ने भी देखा है. लेकिन सब कुछ करके भी हम उन्हें संतुष्ट नहीं रख पाये. फर्क़ यह है कि आज हमारे बच्चे हमारे लिए जितना और जो करते हैं उससे हम अत्यधिक संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं.  और जब जीवन में इतना सब कुछ हासिल है तो फिर इस बात को भूल क्यों नहीं जाना चाहिए कि हमारी ज़िंदगी के शुरुआती बरस किस तरह बीते हैं! जैसे और बहुत सारी बातों की स्मृति हमें नहीं है, इन कष्टों की स्मृति भी क्यों हो

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'बनास जन' के अगस्त, 2023 अंक में प्रकाशित.