वैसे मुझे अपनी ही बात करनी चाहिए, अपने जैसों की नहीं. किन्हीं दो लोगों की ज़िंदगी यकसां नहीं होती है. इसलिए मुझे कोई हक़ नहीं कि मैं औरों की ज़िंदगी के बारे में यह कहूं कि उसमें संघर्ष था या नहीं था. मैं केवल और केवल अपनी बात कर रहा हूं. आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि ज़्यादा से ज़्यादा कितना पीछे देख सकता हूं तो ख़ुद मुझे बहुत आश्चर्य होता है. इसलिए आश्चर्य होता है कि मेरे पास अपने बचपन की कोई स्मृति है ही नहीं. पीछे मुड़ कर देखने की कोशिश करता हूं तो कुछ भी नज़र नहीं आता है. क्या सभी के साथ ऐसा होता है? आप भी सोच कर देखें कि उम्र के छह सात दशक जी लेने के बाद आप कितना पीछे तक देख सकते हैं! जब मैं अपने अतीत को विश्लेषित करके इस बात के लिए कोई तर्क जुटाने का प्रयास करता हूं तो मुझे एक ही बात समझ में आती है और वह यह कि मेरे बचपन की कोई स्मृति ऐसी नहीं है जो बहुत सुखद हो, या जो बहुत कड़वी और त्रासद हो. इसलिए मुझे कुछ भी याद नहीं है.
मेरे पिता उस पीढ़ी और सोच के इंसान थे जिनका अपने बच्चों से कोई संवाद नहीं होता था. वे मात्र पिता होते थे, जिनसे डरा जा सकता है. मैं भी डरता था. पिता से ही नहीं, मां से भी. घर में और तो कोई था ही नहीं. माता और पिता की उम्र में बहुत अंतर, और मैं उनकी आखिरी संतान. वैसे भी वो ज़माना बच्चों और मां-बाप के बीच दोस्ती और संवाद का नहीं था. पिता बीमार रहने लगे थे. शायद दमा था उन्हें. घर की अर्थ व्यवस्था डगमगाने लगी थी. तब तक विशेषज्ञ डॉक्टरों की सेवा लेने का चलन शुरु नहीं हुआ था, या शायद हम उस वर्ग के नहीं थे जो ये सेवाएं लिया करते हैं. मुझे इतना ही याद है कि मेरे पिताजी का इलाज़ या तो हमारे उसी मोहल्ले के माजी की बावड़ी के सामने स्थित गणपत लाल जी कम्पाउण्डर के दवाखाने से होता था या फिर थोड़ा आगे घण्टाघर के पास स्थित डॉ करतार सिंह के शफाखाने से. करतार सिंह सम्भवत: आरएमपी (RMP) थे. मुझे प्राय: इनके यहां दवा लेने भेजा जाता था. कभी कभार ज़रूरत पड़ने पर इनमें से किसी को घर भी बुलाया जाता था और तब मेरी ड्यूटी होती थी ‘डॉक्टर साहब’ के बैग को उठाकर लाने की. डॉक्टर साहब का बैग करीब-करीब वैसा होता था जैसा बाद में वैनिटी बॉक्स होने लगा. अब तो वह भी फैशन से बाहर हो चुका है.
पिता जी के मन में मुझे लेकर खूब सारे सपने थे. यह कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तब हमारी दुकान का भी खूब विस्तार हो जाएगा और मैं उसे सम्हालूंगा. मज़े की बात यह कि उन सपनों में, जो मेरे आठ-दस बरस का होने तक देखे जाते थे, मेरी पत्नी भी होती थी, जो उस दुकान की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती थी. इसके बाद तो पिताजी की बीमारी बढ़ती गई और सपने देखने की स्थितियां नहीं रहीं. मुझे यह बात याद है कि हमारी दुकान पर ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स भी बेची जाती थी. वह 78 आरपीएम रिकॉर्ड्स का ज़माना था. ईपी, एलपी वगैरह तब तक चलन में नहीं आई थी. कैसेट्स का ज़माना तो तब सोच से भी बाहर था. और मेरे माता-पिता बड़े गर्व से इस बात का ज़िक्र आने जाने वालों के सामने किया करते थे कि उनका बेटा, अर्थात मैं इतना प्रबुद्ध है कि वह बिना पढ़ना आए भी महज़ लेबल देखकर मनचाही रिकॉर्ड खोज कर ला सकता है. पिताजी मुझे कभी-कभार रेल्वे स्टेशन पार्सल लेने भी भेजा करते थे. रेल्वे स्टेशन हमारे घर से कोई चारेक किलोमीटर दूर था और मैं किराये की साइकिल लेकर वहां जाता था. तब तक उदयपुर सिटी रेल्वे स्टेशन नहीं बना था और उदयपुर में केवल एक रेल्वे स्टेशन था जिसे अब राणा प्रताप नगर नाम से जाना जाता है.
बचपन में खेलने की, कोई शरारत करने की, माता या पिता का लाड़ पाने की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. जहां तक मां-बाप द्वारा लाड़ किये जाने का सवाल है, लाड़ तो वे करते ही होंगे. कोई कारण नहीं है कि उन्हें मुझ पर ममत्व न हो, लेकिन जैसा मैंने कहा, वो ज़माना स्नेह के प्रदर्शन करने का नहीं था, और वे दोनों ही कठोर किस्म के व्यक्तित्व थे. इसलिए मुझे उन दोनों की कोमलता की कोई स्मृति नहीं है. पिता की जो अल्प स्मृतियां अब भी मुझे हैं उनमें एक तो यह है कि वे मुझे अपने साथ फोटो खिंचवाने ले गए हैं. पहले जहां पंचायती नोहरा था और बाद में जहां ओसवाल मार्केट बन गया उस जगह एक फोटोग्राफ़र उनका परिचित था, उसके पास वे मुझे ले गए थे. उस ज़माने में बड़े कैमरे हुआ करते थे, जिसके पीछे एक बुरकानुमा लबादे में घुस कर फोटोग्राफ़र फोटो खींचता था. जिसका फोटो खींचा जा रहा है उसे और विशेष रूप से बच्चों को स्थिर रखने के लिए वो कहता था कि "देखो, अभी इस कैमरे में से चिड़िया निकलेगी". तब का खिंचवाया हुआ फोटो अब भी मेरे संग्रह में है. एक और स्मृति यह है कि वे मुझे बहुत महंगा कमीज़ का कपड़ा दिला कर लाये हैं. कपड़ा आज के क्रेप से मिलता-जुलता था. यह बात तो मुझे बहुत बार याद आती है कि जब भी मैं बीमार पड़ता मेरे पिता मुझसे पूछते कि मुझे क्या चाहिए, और मैं हर बार बिस्किट की मांग करता. तब वे जेबी मंघाराम का असोर्टेड बिस्किट का डिब्बा मेरे लिए मंगवाते.
यह याद नहीं पड़ता कि कभी भी पिता ने मुझे अपने पास बैठकर खाना खिलाया हो. एक थाली में खाना खिलाना तो बहुत दूर की बात है. तब हमारी रसोई तीसरी मंज़िल पर छत के एक सिरे पर थी. वहां मां लकड़ी वाले चूल्हे पर खाना बनाती थी और पिताजी वहीं रसोई में ज़मीन पर बैठकर खाना खाते थे. साथ खिलाने की बात मैंने इसलिए की कि बाद में जब मैं अपने अमरनाथ जी (बुआ के बेटे) भाई साहब के घर जाने लगा तो वे अनिवार्यत: मुझे अपने साथ बिठाकर एक ही थाली में खाना खिलाते. यह बात अलग है कि तब तक मैं अलग थाली लेकर खाना खाने का इतना अभ्यस्त हो चुका था कि उनका यह लाड़ मुझे अखरता था. लेकिन मैंने इस बात को कभी जताया नहीं. आज पहली बार यह बात अभिव्यक्त हो रही है. पिताजी के मन में शालीन वेशभूषा की अलग परिकल्पना थी जो उनके समय के अनुरूप थी, लेकिन मैं उससे भिन्न अपने समय वाले कपड़े पहनना चाहता था. ऐसा करने में मेरी मां मेरा सहारा बनतीं. वैसे तब तक हालत यह हो गई थी कि कपड़े ख़रीदने के अवसर कम ही आते थे.
पिताजी की जो स्मृति मेरे जेह्न में अमिट है वह उनके आखिरी दिन की है. 15 दिसम्बर 1959 का दिन था वह. मेरी उम्र 14 बरस. लेकिन या तो उस ज़माने के बच्चे आज की तुलना में कम समझदार होते थे या औरों की तुलना में मैं कम समझदार था. इसलिए बहुत ज़्यादा जानकारियां मुझे नहीं है. सुबह से पिताजी की तबीयत कुछ ज़्यादा खराब थी. खराब तो लम्बे समय से थी ही. शायद मां को यह एहसास हो गया था कि अब दिया बुझने को है. पिताजी कमरे में लेटे हुए हैं, मां उनके पास है. वे एक सिगरेट मांगते हैं और मां मुझे नीचे हमारे घर के सामने गणेश लाल जिसे मुहल्ले की नाम बिगाड़ने की परम्परा के तहत गुण्या कहा जाता था, की दुकान से सिगरेट लेने भेजती हैं. अपने पिता की सिगरेट पीते हुए कोई छवि मेरे मन पर अंकित नहीं है. सम्भव है कि वे नियमित स्मोकर न हो कर कभी कभार स्मोक कर लेते हों. लेकिन मेरे सामने उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया. यह पहला और अंतिम मौका था. और रोचक बात यह कि उनके लिए सिगरेट लेने जाने की बात तो मुझे याद है लेकिन यह बात स्मृति में नहीं है कि मैंने सिगरेट लाकर किसको दी? मां को या पिताजी को? फिर उन्होंने पी या नहीं.
इसके बाद स्मृति एक छोटी-सी छलांग लगाती है. पिता आखिरी सांस ले चुके हैं. सुबह दस बजे के आस-पास का समय है. मां गज़ब का धैर्य दिखाती हैं. मुझे वे कहती हैं कि अभी रोना मत, वरना मोहल्ले वालों को पता लग जाएगा. और इसके बाद वे जिस धैर्य और हिम्मत से सब कुछ व्यवस्थित करने में जुटती है उसे याद कर आश्चर्य होता है. अनुमान लगाता हूं कि तब मेरे पिता की उम्र 75 के आस पास और मां की उम्र चालीस के आस-पास रही होगी. सब कुछ ठीक कर वे मेरे भाई साहब अमरनाथ जी को ख़बर भिजवाती हैं, और वे तुरंत आकर सारी व्यवस्थाएं करने में जुट जाते हैं. अमरनाथ जी से मेरे माता-पिता के रिश्ते बहुत अजीब रहे. मेरे पिता ही उन्हें हिसार से उदयपुर लाए, उन्हें अपने पास रखा, घड़ीसाज़ी का काम सिखाया, उनकी शादी की. और उसके बाद जाने क्या हुआ कि बोलचाल का रिश्ता भी नहीं रहा. न कभी मेरे पिता ने और न ही कभी मां ने खुलकर इस पर प्रकाश डाला. मैंने पिता के निधन तक उनके और हमारे परिवार में कोई सम्वाद नहीं देखा. पिता के जाने के बाद भी मां के रिश्ते उनके साथ ऊबड़- खाबड़ ही रहे. और यह तब जबकि मेरी मां के मन में भाई साहब के प्रति और भाई साहब के मन में अपनी मामीजी अर्थात मेरी मां के प्रति अगाध प्रेम था. इसे रिश्तों की द्वंद्वात्मकता कहा जा सकता है. यह बात बहुत मार्मिक है कि रिश्तों में पड़ी दरार के बावज़ूद भाई साहब ने मेरे पिता और बाद में मां के अंतिम संस्कार व सम्बद्ध रस्मों के निर्वहन में सर्वाधिक सक्रिय भूमिका अदा की. पिता और मां के न रहने के बाद मेरे तो उनसे और भाभी से रिश्ते बहुत ही जीवंत और सघन रहे. आज जब वे और भाभी दोनों इस दुनिया में नहीं हैं तब भी उनकी अगली पीढ़ी से हमारे रिश्ते बहुत ही मज़बूत हैं.
भाई साहब के निर्देशानुसार मैंने पिताजी के अंतिम संस्कार की सारी रस्में पूरी कीं. बाद में उनकी अस्थियां लेकर हरिद्वार भी गया. ठीक से याद नहीं लेकिन शायद मेरी मां भी साथ गईं. यह पिताजी के निधन के कुछ समय बाद की बात है. मेरे पिता के निधन पर शोक व्यक्त करने ग़ाज़ियाबाद से मेरी मौसी और उनके साथ नानी भी आईं. इन दोनों को भी मैंने पहली दफा देखा. मेरे पिता और माता के स्वभाव में जो उग्रता, आक्रामकता और अक्खड़पन था उसी का यह परिणाम था कि ज़िंदगी के शुरुआती चौदह बरसों में मैंने अपनी मौसी और नानी को देखा ही नहीं. मेरे नानाजी काफी पहले दिवंगत हो चुके थे. मां के परिवार में बस ये ही दो सदस्य थे. लेकिन इसके बावज़ूद इनमें कोई रिश्ता इतने बरस तक नहीं था. मौसी जी का वैवाहिक जीवन उतार-चढ़ावों भरा रहा. जब पिता का निधन हुआ तब वे ग़ाज़ियाबाद में अपने रुग्ण पति और उनकी तीन संतानों के साथ रहती थीं. ‘उनकी संतानें’ इसलिए कि मौसी जी इनकी दूसरी पत्नी थीं. कुछ समय बाद इन मौसाजी का भी निधन हो गया और संक्षेप में मात्र इतना कि जो सम्पत्ति मौसा जी मौसी जी के नाम कर गए थे उसे हथियाने के बाद उनके तीनों बच्चों ने मौसीजी को घर से निकाल दिया. तब उन्हें शरण मिली मेरी मां के पास. फिर मौसी जी मेरी मां की मृत्यु के बाद भी, अपने अंतिम समय तक हमारे साथ रहीं.
जिस ज़माने में मेरे पिता का निधन हुआ उस ज़माने में उदयपुर में और विशेष रूप से हमारे समाज और मोहल्ले में यह प्रथा थी कि जिस स्त्री के पति का निधन हो जाए उसे पूरे एक साल तक एक ही कमरे में कोने में बैठे रहना होता था. स्थानीय बोली में इसे खूणे बैठना कहा जाता था. स्वाभाविक है कि मेरी मां को भी इस रीत का पालन करना पड़ा. लेकिन आज उनके साहस को याद कर नतशिर होता हूं कि उस पारंपरिक, बल्कि कहें कि घोर रूढ़िवादी परिवेश में भी उन्होंने इस रीत को बहुत जल्दी अंगूठा दिखा दिया. यह उनका साहस तो था ही, मज़बूरी भी थी. अगर वे बारह महीने इस तरह कोने में बैठी रहतीं तो ज़िंदगी की गाड़ी कैसे चलती? कोई भी तो सम्बल नहीं था हमारे पास. मात्र दो-तीन माह खूणे बैठने के बाद मेरी मां दुकान सम्हालने लगीं. हम लोग तब जिस किराये के घर में रहते थे उसमें नीचे हमारी दुकान थी और ऊपर आवास. दुकान की बगल में सीढ़ियां थीं. उन्हीं सीढ़ियों से बिना धरातल पर गए भी दुकान में जाया जा सकता था. मेरी मां वहीं सीढ़ियों पर बैठकर मुझे निर्देशित करतीं और मेरा ध्यान भी रखतीं. वैसे उस दुकान में ज़्यादा कोई व्यावसायिक सम्भावनाएं नहीं थीं. माल हो तो ग्राहक आएं. माल मंगवाने के पैसे नहीं. फिर भी मां उस दुकान को चलाती रहीं. एक तो इस आस में कि जो थोड़ा बहुत माल बिकेगा उससे कुछ पैसे आएंगे, और दूसरे, इससे बड़ी बात यह कि दुकान रहेगी तो उनके पति का नाम भी रहेगा.
अपने पति के नाम वाली दुकान को लेकर उनका मोह और अभिमान बहुत गहरा था. और इसे एक विडम्बना ही कहूंगा कि मैं उनके इस भाव की रक्षा नहीं कर सका. कोई योजना नहीं थी, लेकिन नियति मुझे व्यापार की दुनिया से निकाल कर नौकरी की दुनिया में ले गई और इसकी परिणति अंतत: उस दुकान के बंद होने में हुई. शायद इस बात ने मेरी मां को बहुत आहत किया होगा. उन्होंने कभी खुलकर कहा नहीं लेकिन अब मैं उनकी मन:स्थिति का अनुमान लगा सकता हूं. उनके आहत मन की ही शायद यह परिणति भी हुई कि बावज़ूद इसके कि मैं उनकी इकलौती संतान था, वे मेरे प्रति कभी भी बहुत ममतालु नहीं रहीं. लड़ना झगड़ना मेरे स्वभाव में नहीं है, लेकिन उन्होंने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी. रूठतीं, गुस्सा करतीं, भला-बुरा कहतीं, ज़माने भर से बुराई करतीं. लेकिन थी तो मां ही. उन्होंने और फिर उनके साथ और बाद में हमारी मौसी ने हमारी ज़िंदगी को जितना कष्टप्रद बनाया, उसे याद कर मन आज भी बहुत दुखी होता है. मेरी मां बहुत ज़िद्दी, निर्मम और जटिल व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं. वे स्वयं भी खुद को कट्टर कहती थीं और अपनी मां, अपनी बहन के साथ रिश्तों में उन्होंने इस बात को साबित भी किया था. लेकिन बाद में यही कट्टरता उन्होंने मेरे और पत्नी के साथ भी बरती. मुझे एक भी याद ऐसी नहीं है जिसमें हमारे प्रति उनका उन्मुक्त प्रेम प्रकट होता हो. अलबत्ता हमारे दोनों बच्चों के साथ उनका बहुत गहरा लगाव रहा.
अब बहुत आगे जाकर जब पीछे मुड़कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि मेरे से उनके प्रति व्यवहार में कहां कोई चूक हुई, तो मुझे कुछ भी नहीं मिलता है. अपनी तरफ से मैंने उन्हें सम्मान देने और उनके प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करने में कोई कृपणता नहीं की. लेकिन वे असंतुष्ट ही रहीं. बाद के वर्षों में उनकी चिंता का केंद्र अपनी बहन अर्थात मेरी मौसी हो गईं और हालांकि मैं उन्हें बहुत बार यह विश्वास दिलाता रहा कि उनके जाने के बाद भी मौसी हमारे साथ हमारे परिवार के सदस्य की हैसियत से ही रहेगी, वे कभी आश्वस्त नहीं हुईं. मौसी के भविष्य को लेकर मेरे, बल्कि हमारे प्रति जाने क्यों एक गहरा अविश्वास का भाव उनके मन में रहा, और उन्होंने इसे खुलकर अभिव्यक्त भी किया. मां, जितनी जटिल और निर्मम थीं, मौसी उनकी तुलना में बहुत सौम्य, स्नेहिल और सीधी थीं. लेकिन उनका भोलापन उनकी सबसे बड़ी सीमा था. किसी ने कुछ कह दिया, बल्कि नहीं भी कहा लेकिन उन्होंने जैसा समझ लिया वही उनके लिए अंतिम होता था. हमारी भरपूर सेवा के बावज़ूद वे भी कभी हमसे प्रसन्न नहीं रही. इन दोनों के व्यवहार को जितना मैंने सहा, उससे बहुत ज़्यादा मेरी पत्नी ने सहा. लेकिन अब यह सब अतीत है. भुला देने काबिल अतीत. जो बीत गई सो बात गई!
फिर थोड़ा पीछे लौटता हूं. मैं दुकान पर बैठने लगा, और साथ-साथ पढ़ाई भी ज़ारी रही. उस साल दसवीं की परीक्षा दी, पास हुआ. और ज़िंदगी की गाड़ी हिचकोले खाती चलती रही. इसी बीच भाई साहब की सलाह पर मेरी मां ने अपनी तमाम जमा पूंजी और गहने वगैरह बेचकर तथा कुछ कर्ज़ा लेकर उस किराये के मकान को खरीद लिया. तब वो मकान ग्यारह हज़ार रुपये में खरीदा गया. असल में उसे खरीदने की बात तो मेरे पिताजी ने पक्की कर ली थी लेकिन किस्मत को शायद यह मंज़ूर नहीं था कि अपने जीते जी वे अपना मकान देख सकते. भाई साहब का सोच यह था कि सर पर अपनी छत हो तो जीवन सुरक्षित रहता है. इन मामलों में वे बहुत व्यावहारिक थे, मेरे पिता बिल्कुल भी नहीं थे. बाद में भाई साहब ने तो कम और भाभी ने कई बार यह ताने भी दिये कि मेरे पिता ने खूब कमाया और खूब उड़ाया. यह बात वे एक स्थानीय अभद्र कहावत के माध्यम से कहतीं. वैसे अपनी प्रारम्भिक ज़िंदगी में मैंने ताने बहुत सुने हैं. जब आपके पास कुछ नहीं हो तो लोग और कुछ दें न दें, ताने देने में कोई कंजूसी नहीं करते हैं - यह बात मुझे उस छोटी उम्र में ही पता चल गई थी.
उस ज़माने में हमारा घर कैसे चलता होगा, हम क्या खाते-पीते होंगे, इन सब बातों की सहज ही कल्पना की जा सकती है. जब आपके पास न तो जमा पूंजी हो और न आय का कोई साधन तो ज़िंदगी कैसी हो सकती है? वैसी ही थी हमारी ज़िंदगी. बेरंग, बेनूर, बेस्वाद. कोई राह नहीं. कोई रोशनी की किरण नहीं और फिर भी चले जा रहे थे. जाने कहां? शायद मां सोचती होंगी कि बेटा थोड़ा बड़ा हो जाएगा, घड़ीसाज़ी सीख जाएगा तो दुकान फिर से चलने लगेगी. उसी क्रम में मैंने भाई साहब की दुकान पर जाकर घड़ीसाज़ी सीखना शुरु भी कर दिया था. जो काम भाई साहब ने मेरे पिताजी से सीखा था वही काम वे मुझे सिखा रहे थे. मैं कॉलेज भी जाता और वहां से जो समय बचता उसमें घड़ीसाज़ी सीखता. मां खुलकर दुकान पर बैठने लगीं. उस ज़माने के उदयपुर में यह कितने बड़े साहस और क्रांतिकारिता की बात थी, कल्पना की जा सकती है. मां में बात करने का और सुनने वाले पर अपना रौब ग़ालिब करने का कौशल था. भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थीं, जीवन के अनुभव और सुन सुनकर अर्जित ज्ञान की उनके पास कोई कमी नहीं थी.
मैं भी थोड़ी बहुत घड़ीसाज़ी करने लगा था, जिससे हमारा जीवन थोड़ा-सा, बहुत थोड़ा-सा सहज हो रहा था. लेकिन इसी घड़ीसाज़ी ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी. कैसे, यह जानने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा. इस बात को आगे विस्तार से लिखूंगा. अभी केवल यह विडम्बना व्यक्त कर दूं कि मां ने मुझे घड़ीसाज़ी सीखने की दिशा में इसलिए अग्रसर किया था कि मैं उनके पति के नाम वाली दुकान को ज़िंदा रखूंगा, और कम्बख़्त इसी घड़ीसाज़ी ने मुझे जिस राह पर ले जाकर खड़ा कर दिया उस राह पर चलने की परिणति इस दुकान के बंद होने में हुई. क्या इसी को दवा का ज़हर हो जाना कहेंगे?
मैंने अपनी बात की शुरुआत स्मृतियों के अभाव से की थी. बचपन की और किशोरावस्था की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. क्यों नहीं है, यह बात कुछ हद तक शायद स्पष्ट हुई हो. न हुई हो तो उसे स्पष्ट करने का कोई तरीका मुझे सूझ भी नहीं रहा. जैसे तैसे गर्दिश के ये दिन बीते, मेरे जीवन की गाड़ी ऊबड़ खाबड़ पथरीली सड़क से हटकर एक समतल सड़क पर आ गई. यह हुआ 1967 में मेरे नौकरी लगने से. घर में लिखने-पढ़ने की कोई परम्परा नहीं और मैं बन गया कॉलेज लेक्चरर. ज़िंदगी में अजूबे भी तो घटते हैं. यह भी एक अजूबा था. इसलिए भी था कि मेरी मां की योजना में मेरा नौकरी करना तो कहीं था ही नहीं. और मेरी अपनी योजना? वह कहावत तो सुनी है न - बेगर्स काण्ट बी चूजर्स! फिर बच्चन जी के उसी गीत को याद करूं. वे लिखते हैं, "फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा/ मैंने भी बहना शुरु किया उस रेले में." अब लगता है कि हिंदी में एमए करना, लेक्चरर के पद के लिए आवेदन करना, नौकरी मिलने पर नौकरी जॉइन कर लेना - ये सब धक्के में ही तो हुआ. सोचा-समझा तो कुछ भी नहीं.
जब नौकरी लगी तो दो वक़्त की रोटी की फिक्र मिटी. उस समय मेरी तनख़्वाह थी कुल तीन सौ पिच्चानवे रुपये. दो सौ पिच्चासी रुपये मूल वेतन और उस पर एक सौ दस रुपये महंगाई भत्ता. जैसे ही हर माह इतने रुपये मिलने की आश्वस्ति हुई, लगा कि आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम. उस वक़्त इतनी बड़ी धन राशि हर माह मिलने का जो सुख था आज उसे बयान नहीं कर सकता. हालांकि यह तनख़्वाह भी निर्बाध रूप से कहां मिलती थी. उस ज़माने में महालेखाकार कार्यालय से पे स्लिप आती थी, फिर हम बिल बनाते थे जिसे कोष कार्यालय पास करता था. इस तरह तीन-चार महीने में एक बार तनख़्वाह मिल पाती थी. लेकिन आश्वस्ति तो थी. मेरी पहली नौकरी भीनमाल नामक एक छोटे-से कस्बे में लगी, मैं पहली बार घर से बाहर निकला. तब सब कुछ कैसे किया होगा, यह सोचकर आश्चर्य होता है. जब तनख़्वाह मिली तो अपने खर्च भर का पैसा रखकर शेष सब मां को दे दिया. आखिर हमें इस बीच समय-समय पर लिया गया कर्ज़ भी तो चुकाना था.
यह एक यथार्थ है कि नौकरी लग जाने के बाद, बहुत लम्बे समय तक मैं आर्थिक रूप से ऐसी स्थिति में नहीं आ सका जिसे सुखद कहा जा सकता हो. बीस तारीख के बाद पहली तारीख का इंतज़ार शुरु हो जाता. करीब-करीब पूरे नौकरी काल में यही हाल रहा. नौकरी के शुरुआती बरसों में हर माह मां-मौसी के लिए एक निर्धारित राशि भेजता. पहले मनीऑर्डर से और बाद में बीमाकृत लिफाफे में करेंसी नोट रखकर. यह करना वैध नहीं था इसलिए डाक खाने का बाबू हर बार उस बीमाकृत लिफाफे पर एक इबारत लिखवाता - "इस लिफाफे में मूल्यवान दस्तावेज़ हैं." इस सबके बीच मेरा विवाह हुआ. उसका खर्चा भी इसी छोटी-सी तनख़्वाह से समायोजित हुआ. मेरी ज़िद थी कि मेरे ससुराल से कोई दहेज़ नहीं मांगा जाएगा, जबकि मेरी मां और मौसी के सपने भिन्न थे. उन्होंने अपने छल छद्म का कौशल भी दिखाया, जिसे लेकर जब मुझे इसकी जानकारी मिली तो उनके और मेरे बीच बदमज़गी भी हुई. वैसे भी मेरे ससुर जी के आर्थिक स्रोत्र बहुत सीमित थे और परिवार बड़ा. लेकिन आज मैं इस बात पर अपनी पीठ थपथपा सकता हूं कि अपनी विपन्नता के बावज़ूद मैंने खुद को उन पर बोझ नहीं बनने दिया. विवाह के अलावा, मां की मांग पर उदयपुर के घर में यथावश्यकता छोटी-मोटी रिपेयरिंग भी करवाता रहा. एक बार इस काम के लिए सरकार से कर्ज़ा भी लिया.
यह तो ठीक है कि मेरे दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में और बाद में सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़े इसलिए उनकी पढ़ाई का कोई बड़ा बोझ मुझे नहीं उठाना पड़ा, लेकिन खर्चे तो होते ही थे. जब आजकल के बच्चों के पढ़ाई वगैरह के खर्चे देखता हूं तो बार-बार यह विचार आता है कि अगर ऐसा ही मेरे ज़माने में होता तो मैं अपने बच्चों को पढ़ा ही नहीं सकता था. और बच्चे तो बाद की बात हैं, मैं ख़ुद भी नहीं पढ़ सकता था. आज जब एक ख़ास राजनीतिक विचारधारा वाले लोग सरकार द्वारा दी जाने वाली तथाकथित मुफ्त सुविधाओं की आलोचना करते हैं तो यह बात मुझे और भी ज़्यादा याद आती है. लेकिन वे इस बात को नहीं समझ सकते. उन्हें तो अपने दल के हित में सरकार का विरोध करना है. जब बच्चे, एक के बाद दूसरा इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिल हुए तो उनके रहने खाने का खर्च भी मेरी तनख़्वाह के अनुपात में ठीक-ठाक ही होता था. मेरे पास कभी इतने पैसे नहीं हुए कि बच्चों के पास एकाध महीने की अतिरिक्त राशि जमा रहे. हर माह मैं उन्हें पैसे भेजता और वे मेरे पैसों का इंतज़ार करते. इसके बावज़ूद हमारे दोनों बच्चों ने कभी भी हमें अपनी आवश्यकताओं के लिए दबाव में नहीं आने दिया. कभी कोई मांग उन्होंने नहीं की और मेरी आर्थिक हैसियत के अनुरूप बहुत सादगी से अपनी पढ़ाई पूरी कर ली. सच तो यह है कि आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो इस बात का अफसोस ही होता है मैं अपने बच्चों को बहुत खुशनुमा ज़िंदगी नहीं दे सका. लेकिन इसके बावज़ूद आज दोनों ही बच्चे जहां हैं और जिस हैसियत में है उससे किसी को भी, ज़ोर देकर कह रहा हूं, किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है. इतना ज़रूर कहूंगा कि आज जहां वे हैं वह सब उनकी अपनी मेहनत का फल है. उसका श्रेय मुझे नहीं मिलना चाहिए. और इतना ही नहीं उनके मन में कहीं दूर-दूर तक यह मलाल भी नहीं है कि हमने बचपन में उनकी इच्छाओं को बड़ा आकाश नहीं दिया. उलटे वे इस बात के लिए लालायित रहते हैं कि कैसे जीवन का सर्वश्रेष्ठ हमें उपलब्ध करा दें!
जब अपने जीवन की इस स्मृति विहीनता की बात कर रहा हूं और उन स्थितियों का विश्लेषण कर रहा हूं जिनमें मेरे जीवन ने आकार लिया तो अनायास ही इस बात पर आश्चर्य भी हो रहा है कि कैसे बिना किसी योजना के मेरे जीवन की राह बदल गई, और कैसे मुझे जीवन में वह सब मिलता गया जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. भले ही मेरी मां ने मुझे इस बात के लिए माफ़ नहीं किया कि मैंने उनके पति का नाम विलुप्त कर दिया, आज मैं गर्व कर सकता हूं कि मैंने जीवन में जो कुछ हासिल किया वह भी मेरे पिता के नाम से अधिक न भी हो तो उससे कम भी नहीं है. जब बहुत सारे लोगों के जीवन संघर्ष के बारे में पढ़ता हूं तो इस बात पर ध्यान जाए बग़ैर नहीं रहता है कि मेरे जैसी पृष्ठभूमि वाले किसी युवा का कॉलेज शिक्षक बन जाना भी मामूली बात नहीं है. हिंदी के बहुत सारे बड़े लेखकों को तो आज तक यह अफसोस है कि वे कॉलेज प्राध्यापक नहीं बन सके. मैं न केवल प्राध्यापक बना, साढ़े तीन दशक पढ़ाता रहा. अध्यापक भी मैं ठीक ही रहा. अगर संकोच छोड़ कर कहूं तो बहुत अच्छा रहा. समय-समय पर, बल्कि समय से पहले, योग्यता की वजह से आउट ऑफ टर्न, मेरी पदोन्नति भी हुई और अपनी नौकरी में वहां तक पहुंचा जहां पहुंचने का बहुत लोग सपना भी नहीं देखते हैं. नौकरी के साथ-साथ साहित्य की दुनिया में भी अपने लिए थोड़ी-सी जगह बनाई, यह अतिरिक्त उपलब्धि है.
पारिवारिक रूप से भी मेरी यात्रा बहुत अच्छी रही. कहां तो मेरे मां-बाप जो रिश्ते थे उनका भी निर्वाह नहीं कर सके, और कहां उन्हीं की वंश बेल को आगे बढ़ाता मैं दोनों तरफ के भरे-पूरे परिवारों से बहुत अच्छी तरह जुड़ा हुआ हूं. गर्व से कह सकता हूं कि मेरे और पत्नी के परिवारों में बिना किसी अपवाद के सभी से हमारे रिश्ते बहुत आत्मीयता और सद्भाव के हैं. निश्चय ही इसमें मुझसे अधिक योगदान मेरी पत्नी का है. अगर अवसर आया तो इस बात की चर्चा मैं आगे करने का प्रयास करूंगा कि किस तरह हम दोनों अपने पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता और ऊष्मा बनाए रख सके हैं.
एक सामान्य मध्यमवर्गीय भारतीय के लिए बहुत बड़ा सपना होता है कि वह जीवन में एक बार हवाई जहाज में बैठे और विदेश यात्रा कर आए. मेरा भी सपना था. अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआती बरसों में एक बार कोटा से जोधपुर की किफायती हवाई यात्रा करके मैं अपने भाग्य पर बरसों इतराता रहा था. कितना टिकिट था इस यात्रा का? पूरे पैंतीस रुपये! लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध में बच्चों के कारण हमारी ज़िंदगी ने ऐसा मोड़ लिया अब हमने गिनना बंद कर दिया है कि कितनी बार विदेश गये हैं और किन-किन देशों की यात्राएं की हैं. पहले बेटी दामाद ने अमरीका में अपना घर बनवाया, और फिर बेटा बहू ने ऑस्ट्रेलिया में खूब बड़ा घर खरीदा. बेटा-बहू ने अपने नए खरीदे घर का औपचारिक गृह प्रवेश हमारे वहां जाने तक स्थगित रखा और फिर जब हम वहां जा सके तब हमसे ही अपने नए खरीदे बहुत विशाल घर के गृह प्रवेश की सारी रस्में सम्पन्न करवाईं. यह हमारे लिए बहुत बड़े गर्व की बात थी.
ज़िंदगी में और क्या चाहिए? हमने अपनी ज़िंदगी करीब-करीब पूरी जी ली है. आज हर तरह का सुख और संतोष हमें है. दोनों बच्चे, और उनके जीवन साथी हमारा खूब ध्यान रखते हैं. उनके बच्चे अपने दादा-दादी और नाना-नानी से खूब घुले मिले हैं. बस, एक ही फर्क़ आया है बीते कल और आज में. हमने भी अपनी क्षमता भर अपनी मां-मौसी की सेवा की. इस बात को हमारे बच्चों ने भी देखा है. लेकिन सब कुछ करके भी हम उन्हें संतुष्ट नहीं रख पाये. फर्क़ यह है कि आज हमारे बच्चे हमारे लिए जितना और जो करते हैं उससे हम अत्यधिक संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं. और जब जीवन में इतना सब कुछ हासिल है तो फिर इस बात को भूल क्यों नहीं जाना चाहिए कि हमारी ज़िंदगी के शुरुआती बरस किस तरह बीते हैं! जैसे और बहुत सारी बातों की स्मृति हमें नहीं है, इन कष्टों की स्मृति भी क्यों हो?
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'बनास जन' के अगस्त, 2023 अंक में प्रकाशित.